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________________ [२२०] स्नानार्थमभिगच्छन्तं देवाः पितृगणैः सह । वायुभूतास्तु गच्छन्ति तृषार्ताः सलिलार्थिनः ॥ निराशास्ते निवर्तन्ते वननिष्पीडने कृते । अतस्तर्पणानन्तरमेव वस्त्रं निष्पीडयेत् ॥ -स्मृतिरत्नाकरे, वृद्धवसिष्ठः। परन्तु जैनियों का ऐसा सिद्धान्त नहीं है । जैनियों के यहाँ मरने के पश्चात् समस्त संसारी जीव अपने अपने शुभाशुभ कमों के अनुसार देव, मनुष्य, नरक, और तिर्यंच, इन चार गतियों में से किसी न किसी गति में अवश्य चले जाते हैं । और अधिक से अधिक तीन समय तक निराहार रहकर तुरत दूसरा शरीर धारण करलेते हैं । इन चारों गतियों से अलग पितरों की कोई निराली गति नहीं होती, जहाँ वे बिलकुल ही परावलम्बी हुए असंख्यात या अनन्तकाल तक पड़े रहते हों । मनुष्यगति में जिस तरह पर वर्तमान मनुष्य-जो अपने पूर्वजन्मों की अपेक्षा बहुतों के पितर हैं-किसी के तर्पण जलको पीते नहीं फिरते उसी तरह पर कोई भी पितर किसी भी गति में जाकर तर्पण के जलकी इच्छा से विह्वल हुआ उसके पीछे पीछे मारा मारा नहीं फिरता। प्रत्येक गति में जीवों का आहारविहार उनकी उस गति, स्थिति तथा देशकाल के अनुसार होता है और उसका वह रूप नहीं है जो ऊपर बतलाया गया है । इस तरह पर भट्टारकजी का यह सब कथन जैनधर्मके विरुद्ध है, जीवोंकी गतिस्थित्यादि-विषयक अजानकारी तथा अश्रद्धा को लिये हुए है और कदापि जैनियों के द्वारा मान्य किये जाने के योग्य नहीं हो सकता । यहाँ पर में इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि हिन्दुओं के कुछ प्रसिद्ध ग्रन्थों में भी इस बातका उल्लेख मिलता है कि जैनधर्म में इस तर्पण को स्थान नहीं है जैसाकि उनके पद्मपुराण+ के निम्न + देखो'मानन्दाश्रमसिरीज़ पूना' की छपी हुई भावृत्ति। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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