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________________ [ २१६ ] स्मृतिरत्नाकर' में यह ब्रैकटों में दिये हुए साधारण पाठभेद के साथ पाया जाता है और इसे ' अनि ' ऋषि का वाक्य लिखा है। हिंदुओं 6 भट्टारकजी ने इस अघमर्षण को स्नान का अंग बनलाकर हिन्दुओं के एक ऐसे सिद्धान्त को अपनाया है जिसका जैन सिद्धान्तों के साथ कोई मेल नहीं । जैनसिद्धान्तों की दृष्टि से पापों को इस तरह पर स्नान के द्वारा नहीं धोया जा सकता। स्नान से शरीर का सिर्फ़ बाह्यमल दूर होता है, शरीर तक की शुद्धि नहीं हो सकती; फिर पापों का दूर होना तो बहुत ही दूर की बात है - वह कोई खेल नहीं है । पाप जिन मिथ्यात्व असंयमादि कारणों से उत्पन्न होते हैं उनके विपरीत कारणों को मिलान से ही दूर किये जा सकते हैं - जलादिक से नहीं । जैसाकि श्री श्रमितगति श्राचार्य के निम्नवाक्यों से भी प्रकट है: --- : मलो विशोध्यते बाह्य जलेनेति निगद्यताम् । पापं निहन्यते तेन कस्येदं हृदि वर्तते ||३६|| मिथ्यात्वाऽयमाऽज्ञानैः कल्मश्रं प्राणिनार्जितम् । सम्यक्त्व संयमज्ञानैर्द्वन्यते नान्यथा स्फुटम् ||३७॥ कषायैरर्जितं पापं सस्तिलेन निवार्यते । एतज्जडात्मनो ब्रूते नान्ये मीमांसका ध्रुवम् ॥ ३८ ॥ यदि शोधयितुं शक्तं शरीरमपि नो जलम् । अन्तःस्थितं मनो दुष्टं कथं तेन विशोध्यते ॥ २६ - धर्मपरीक्षा, १७ वाँ परिच्छेद । भट्टारकजी के इस विधान से यह मालूम होता है कि वे स्नानसे पापों का धुलना मानते थे । और शायद यही वजह हो जो उन्होंने अपने ग्रन्थ में स्नान की इतनी भरमार की है कि उससे एक अच्छे भले श्रादमी का नाक में दम आ सकता है और वह उसी में उलझा रहकर अपने जीवन के समुचित ध्येय से वंचित रह सकता है और अपना कुछ भी उत्कर्ष साधन नहीं कर सकता । मेरी इच्छा थी कि मैं स्नान की उस भरमार का और उसकी निःसारता तथा जैन " सिद्धान्त के साथ उसके विरोध का एक स्वतन्त्र शीर्षक के नीचे पाठकों को दिग्दर्शन कराऊँ परन्तु लेख बहुत बढ़ गया है इसलिय मजबूरन अपनी इस इच्छा को दबाना ही पड़ा | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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