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[१६] गच्छेत् ' के अनंतर ही 'अथविशेषः' लिखकर उसे पाँच* पद्यों में व्यक्त किया है, जो इस प्रकार हैं:
विवाहे दम्पतीस्यातां त्रिरात्रं ब्रह्मचारिणौ । अलंकृता वधूश्चैव सहशय्यासनाशिनौ ॥ १७२ ॥ वध्वासहैव कुर्वीत निवास श्वसुरालये। चतुर्थ दिनमत्रैव केचिदेवं वदन्ति हि ॥ १७३ ।। चतुर्थीमध्ये सायन्ते दोषा यदि वस्स्य चेत् । दत्तामपि पुनर्दद्यारिताऽन्यस्मै विदुर्बुधाः ॥ १७४।। प्रवरैक्यादिदोषा:स्युः पतिसंगादधो यदि । दत्तामपि हरेद्दद्यादन्यस्मा इति केचन ।। १७५ ॥ कलौ तु पुनरुद्वाहं वर्जयेदिति गालवः ।
कस्मिाश्चिद्देश इच्छन्ति न तु सर्वत्र केचन ।। १७६ ।। इन पद्यों द्वारा भट्टारकजी ने यह प्रतिपादन किया है कि-'विवाह होजाने पर दम्पती को-वर वधू दोनों को-तीन रात तक (विवाह रात्रि को शामिल करके) ब्रह्मचारी रहना चाहिये-परस्पर संभोग अथवा काम क्रीड़ादिक न करना चाहिये-इसके बाद वधू को अलंकृत किया जाय और फिर दोनों का शयन, प्रासन तथा भोजन एक साथ होवे ॥१७२॥ वर को वधू के साथ ससुराल में ही निवास करना चाहिये। परंतु कुछ विद्वानों का यह कहना है (जिस पर
* एक छठा पद्य और भी है जिसका चतुर्थीक्रिया के साथ कुछ सम्बंध नही है और जो प्रायः असंगतसा जान पड़ताहै। उसके बाद 'विवाहानन्तरं गच्छत्सभार्यः स्वस्थ मंदिरम्' नामक पद्य से और फिर घर में वधू प्रवेश के कथन से 'स्वग्रामं गच्छेत्' कथन का सिलसिला ठीक बैठ जाता है और यह मालूम होने लगता है कि ये मध्य के पद्य ही विशेष कथन के पद्य हैं और वे अपने पूर्वकथन-चतुर्या कृत्य. वर्णन-के साथ सम्बंध रखते हैं। i..कुछ स्थानों पर.अथवा जातियों में ऐसा रिवाज़ पाया जाता है
कि वधु के पतिगृह पर भाने की जगह पति ही बंधू के घर पर जाकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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