SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [१७०] तथा म्लेच्छों तक को धर्म का उपदेश दिया है, उनके दुख सुख को सुना है, उनका हर तरह से समाधान किया है और उन्हें जैन धर्म में दीक्षित करके सन्मार्ग पर लगाया है। अतः ऐसे लोगों से बोलना योग्य नहीं' यह सिद्धान्त बिलकुल जैनधर्म की शिक्षा के विरुद्ध है । इसी तरह पर 'उन लोगों को कभी कुछ देना नहीं और न कभी उनकी कोई चीज़ लेना' यह सिद्धांत भी दूषित तथा बाधित है और जैनधर्म की शिक्षा से बहिर्भूत है। क्या ऐसे लोगों के भूख-प्यास की वेदना से व्याकुल होते हुए भी उन्हें अन्न, जल न देना और रोग से पीडित होने पर औषध न देना जैनधर्म की दया का कोई अंग हो सकता है ? कदापि नहीं । जैनधर्म तो कुपात्र और अपात्र कहे जाने वालों को भी दया का पात्र मानता है और उन सब के लिये करुणा बुद्धि से यथोचित दान की व्यवस्था करता है । जैसाकि पंचाध्यायी के निम्न वाक्यों से भी प्रकट है: कुपात्रायाऽप्यपात्राय दान देयं यथोचितम् । पात्रवुद्धया निषिद्धं स्यानिषिद्धं न कृपाधिया। शेषेभ्यः तुतितपासादिपीडितेभ्योऽशुभोदयात् । दीनेभ्योऽभय दानदि दातव्यं करुणार्णवैः ।। वह असमर्थ भूख प्यासों के लिये आहार दान की, व्याधि-पीडितों के लिये औषधि-वितरण की, अज्ञानियों के लिये विद्या तथा ज्ञानोपकरण-प्रदान की और भयग्रस्तों के लिये अभयदान की व्यवस्था करता है । उसकी दृष्टि में पात्र, कुपात्र और अपात्र सभी अपनी अपनी योग्यतानुसार इन चारों प्रकार के दान के अधिकारी हैं। इससे भट्टारकजी का उन लोगों को कुछ भी न देने का उद्गार निकालना कोरी अपनी * पचाध्याय की छपी हुई प्रतियों में ऽभय' की जगह 'ऽदया' सधा 'दया' पाठ गलत दिये हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy