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________________ [ १६६ ] न नहीं चाहिये । और इन लोगों को न तो कभी कुछ देना चाहिये, 1 इनकी कोई चीज़ लेना चाहिये और न इनको कभी छूना ही चाहिये; क्योंकि ऐसा करना लोकापवाद का - बदनामी का कारण है । ' • पाठकजन ! देखा, कैसे संकीर्ण, क्षुद्र और मनुष्यत्व से गिरे हुए उद्गार हैं ! व्यक्तिगत घृणा तथा द्वेष के भावों से कितने लबालब भरे हुए हैं !! और जगत् का उद्धार अथवा उसका शासन, रक्षण तथा पालन करने के लिये कितने अनुपयोगः, प्रतिकूल और विरोधी हैं ! ! क्या ऐसे उद्गार भी धार्मिक उपदेश कहे जा सकते हैं ? अथवा यह कहा जा सकता है कि वे जैनधर्म की उस उदारनीति से कुछ सम्बंध रखते हैं जिसका चित्र, जैनग्रंथों में जैन तीर्थंकरों को 'समवसरण ' सभा का नक़शा खींच कर दिखलाया जाता है ? कदापि नहीं । ऐसे उपदेश विश्वप्रेम के विघातक और संसारी जीवों की उन्नति तथा प्रगति के बाधक हैं । जैनधर्म की शिक्षा से इनका कुछ भी सम्बंध नहीं है । जरा गहरा उतरने पर ही यह मालूम हो जाता है कि वे कितने धांधे और निःसार हैं। भला जब उन मनुष्यों के साथ जिन्हें हम समझते हों कि वे बुरे हैं -- बुरा आचरण करते हैं-- संभाषण भी न किया जाय, उन्हें सदुपदेश न दिया जाय अथवा उनकी भूल न बतलाई जाय तो उनका सुधार कैसे हो सकता है ? और कैसे वे सन्मार्ग पर लगाए जा सकते हैं ? क्या ऐसे लोगों की ओर से सर्वथा उपेक्षा धारण करना, उनके हित तथा उत्थान की चिन्ता न रखना, और उन्हें सदुपदेश देकर सन्मार्ग पर न लगाना जैनधर्म की कोई नीति अथवा जैन समाज के लिये कुछ इष्ट कहा जा सकता है ? और क्या सच्चे जैनियों की दया - परिणति के साथ उसका कुछ सम्बन्ध हो सकता है ? कदापि नहीं । जैनधर्म के तो बड़े २ नेता भाचार्यों तथा महान पुरुषों ने अगणित पापियों, भीती, चांडालों २२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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