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________________ [१६५] भट्टारकजी का यह उद्गार बड़ा ही विलक्षण तथा हद दर्जे का संकीर्ण है और इससे शूद्रों के प्रति असीम घृणा तथा द्वेष का भाव व्यक्त होता है । इसमें यह नहीं कहा गया कि जिन कूप बावड़ी आदि के जल को अन्त्यजों ने किसी तरह पर छुपा हो उन्हीं का जल स्नानपान के अयोग्य हो जाता है बल्कि यह स्पष्ट घोषणा की गई है कि जिन कप बावड़ी आदि को अन्त्यजों ने खोदा हो--भले ही उनके वर्तमान जल को उन्होंने कभी स्पर्श भी न किया हो-उन सब का जल हमेशा के लिये नानपान के अयोग्य होता है ! और इस लिये यदि यह कहा जाय तो वह नाकाफ़ी होगा कि 'भट्टारकजी ने अपने इस वाक्य के द्वारा अन्त्यज मनुष्यों को जलचर जीवों तथा जल को छुने पाने वाले दूसरे तियंचों से ही नहीं किन्तु उस मल, गंदगी तथा कूड़े कर्कट से भी बुरा और गया बीता समझा है जो कुओं, बावड़ियों तथा तालाबों में बहकर या उड़कर चला जाता है अथवा भनेक त्रस जीवों के मरने-जीन-गलने-सड़ने आदि के कारण भीतर ही भीतर पैदा होता रहता है और जिसकी वजह से उनका जल स्नान पान के अयोग्य नहीं माना जाता । भट्टारकजी की घृणा का मान इससे भी कहीं बढ़ा चदा था, और इसी लिये मैं उसे हद दर्जे की या असीम घृणा कहता हूँ। मालूम होता है भट्टारकजी अन्त्यजों के संसर्ग को ही नहीं किन्तु उनकी छायामात्र को अपवित्र, अपशकुन और अनिष्टकारक समझते थे । इसीलिए उन्होंने, एक दूसरे स्थान पर, अन्त्यज का दर्शन हो जाने अथवा उसका शब्द सुनाई पड़ने पर जप को ही छोड़ देने का या यों कहिये कि सामायिक जैसे सदनुष्ठान का त्याग कर उठ जाने का विधान किया है * यह कितने खेद का विषय है !! यथा व्रतच्युतान्त्यजादीनां दर्शने भाषण श्रुती। पुते ऽघोबातगमने जुम्भने जपमुत्सृजत् ॥ ३-१२५ ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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