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[१६४] नान्दीश्राद्धं प्रकुर्वीत स्थण्डिलं च प्रकल्पयेत् । अर्कमभ्यर्च्य सौर्य च गंधपुष्पाक्षतादिभिः ॥" (प्रार्थना) " नमस्ते मंगले देवि नमः सवितुरात्मजे । त्राहि मां कृपया देवि पत्नी त्वं मे इहागता ॥ अर्क त्वं ब्रह्मणा सृष्टः सर्वप्राणिहिताय च । वृक्षाणां प्रादिभूतस्त्वं देवानां प्रीतिवर्धनः ॥ तृतीयोद्वाहजं पापं मृत्यु चाशु विनाशयेत् ।
ततश्च कन्यावरणं त्रिपुरुषं कुलमुद्धरेत् ॥" हिन्दू ग्रन्थों के ऐसे वाक्यों पर से ही भट्टारकजी ने वैधव्य-योग और अर्कविवाह की उक्त व्यवस्था अपने ग्रन्थों में की है । परन्तु खेद है कि आपने उसे भी श्रावक धर्म की व्यवस्था लिखा है और इस तरह पर अपने पाठकों को धोखा दिया है !!
संकीर्ण हृदयोद्गार ।। (२३) यह त्रिवर्णाचार, यद्यपि, हृदय के संकीर्ण उद्गारों से बहुत कुछ भरा हुआ है और मेरी इच्छा भी थी कि मैं इस शीर्षक के नीचे उनका कुछ विशेष दिग्दर्शन कराता परन्तु लेख बहुत बढ़ गया है, इससे सिर्फ दो नमूनों पर ही यहाँ सन्तोष किया जाता है। इन्हीं पर से पाठकों को यह मालूम हो सकेगा कि भट्टारकजी की हृदयसंकीर्णता किस हद तक बढ़ी हुई थी और वे जैनसमाज को जैनधर्म की उदार नीति के विरुद्ध किस ओर ले जाना चाहते थे:( क ) अन्त्यजैः स्खनिताः कूपाधापी पुष्करिणी सरः ।
तेषां जलं न तु ग्राहं स्नानपानाय च क्वचित् ॥ ३-५६ ॥ इस पद्य में कहा गया है कि जो कुएँ, बावड़ी, पुष्करिणी और तालाब अन्त्यजों के-शूद्रों अथवा चमारों आदि के-खोदे हुए हों उनका जल न तो कभी पीना चाहिये और न स्नान के लिये ही ग्रहण करना चाहिये।
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