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________________ [६६ ] निषेधकर्मणि......."पुत्रजीवकृतामाला ॥ ६ ॥ स्तंभने दुष्टसम्राशे जपेत् प्रस्तरकर्कराम् ॥ १०८ ॥ विद्वेषकर्मणि......... पुत्रजीवकृतामाला nein विद्वेषेऽरिवीजजा ॥१०॥ शांतिकर्मणि....."मौक्तिकानां माला ॥ १०१॥ शान्तये......."जपेदुत्पलमालिकाम् ॥ ११० ॥ मालूम होता है भट्टारकजी को इस विरोध की कुछ भी खबर नहीं पड़ी और वे वैसे ही बिना सोचे समझे इवर उधर से पद्यों का संग्रह कर गये हैं। ११० वें पद्य के उत्तरार्ध में आप लिखते हैं-'षट्कमोणि तु प्रोक्तानि पल्लवा अत उच्यते--अर्थात् छह कर्म तो कहे गये अब पल्लत्रों का कथन किया जाता है । परन्तु कथन तो आपने इससे पहले वशीकरण आदि पाठ कर्मों का किया है फिर यह छहकी संख्या कैसी ? और पल्लवों का विधान भी आप प्रत्येक कर्म के साथ में कर चुके हैं फिर उनके कथन की यह नई प्रतिज्ञा कैसी ? और उस प्रतिबा का पालन भी क्या किया गया ? पल्लवों की कोई खास व्यवस्था नहीं बतलाई गई, महज कुछ मंत्र दिये हैं जिनके साथ में पल्लव भी लगे हुए हैं और वे पल्लव भी कई स्थानों पर पूर्व कथन के विरुद्ध हैं । मालूम नहीं यह सब कुछ लिखते हुए भट्टारकजी क्या किसी नशे कर्मों के लिये पत्थर के टुकड़ों की माला बतलाई गई है। विद्वेष कर्म में एक जगह जीयापूते की और दूसरी जगह रीठे के बीज की माला लिखी है और शांतिकर्म में एक जगह मोतियों की तो दूसरी जगह कमलगट्टे की माला की व्यवस्था की गई है। इस तरह पर यह कथन परस्परविरोध को लिक हुए। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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