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________________ [ ६५ ] को और भी बेढंगा किया है--क्योंकि इससे पूर्व कथन का प्रीतरह पर समर्थन नहीं होता-अथवा यों कहिये कि सर्व साधारण पर यह प्रकट किया है कि उन्होंने सरंभ, समारंभ तथा आरंभ का अभिप्राय क्रमशः भूत, वर्तमान तया भविष्यत् काल समझा है । परंतु ऐसा समझना भूल है; क्योंकि पूज्यपाद जैसे आचार्यों ने सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रंथों में प्रयत्नावेश को 'सरंभ' साधनसमभ्यासीकरण को 'समारंभ' और प्रक्रम या प्रथमप्रवृत्ति को 'आरंभ' बतलाया है। (उ) उक्त पाँचों पद्यों के अनन्तर ग्रंथ में वशीकरण, भाकर्षण स्तंभन, मारण, विद्वेषण, उच्चाटन, शांतिकरण और पौष्टिक कर्म नाम के माठ कमों के सम्बन्ध में जप की विधि बतलाई गई है अर्थात् यह प्रकट किया गया है कि किस कर्मविषयक मंत्र को किस समय, किस आसन तथा मुद्रा से, कौनसी दिशा की ओर मुख करके, कैसी मासा लेकर और मंत्र में कौनसा पल्लव लगाकर जपना चाहिये । साथ ही, कुछ कमों के सम्बन्ध में जप के समय माला का दाना पकड़ने के लिये जो जो अँगुली अंगूठे के साथ काम में लाई जावे उसका भी विधान किया है । यह सब प्रकार का विधि-विधान भी ज्ञानार्णव से बाहर की चीज है--उससे नहीं लिया गया है। साथ ही, इस विधान में मालाओं का कथन दो बार किया गया है, जो दो जगहों से उठाकर रक्खा गया मालूम होता है और उससे कयन में कितना ही पूर्वापर विरोध भागया है। यथाः * स्तंभकर्मणि........"मामा स्वर्णमणिमिता ॥ १४ ॥ * अर्थात्-एक जगह स्तंभ कर्म में स्वर्णमणि की माला का.और निषेध (मारण) कर्म में जीयापूते की मालाका (जिसे सोनाजीने पुत्र जीव नामक किसी मणि की-रन की-माला समझा है। विधान किया है तब दूसरी जगह स्तंभन तथा दुष्यों के सन्नाशन दोनों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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