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[११] वाले-चौलुक्य वंश तिलकायमान-परमाईत-कुमारपाल भूपति के धर्मगुरु कलिकाल केवलिकल्प प्रभु श्री हेमचंद्रकी भी उतनी ही आवश्यकता थीकि जितनी १४४४ ग्रंथांके निर्माता गुरु श्री हरिभद्रजी की थी । आजकी सांपतकालीन जनता-बडी खुशी से झुकती है परं कोई सत्य कह कर झुकाने वाला चाहिये. आजकी सृष्टि संसार के तखते परके किसीभी धर्मको मान देती है-कोई दिलानेवाला चाहिये । ऐसा न होता तो "पूज्यपाद-प्रातःस्मरणीय-न्यायाम्मोनिधि-श्रीमद्विजयानंद सरि (आत्मारामजी) महाराजने दिल्लीसे टेकर पंजाबके पश्चिम तट तक के भूले हुए लोगेांको कैसे सन्मार्गगामी बनाया होता ? श्री लक्ष्मीविजयजी (विश्नु. चंदजी ) जैसे अखर्व पांडित्य पूर्ण साधुओंको अपने सच्चे अनुयायी क्योंकर बनाया होता? ___ मनुष्य अपने आत्मावलंबनसे दूसरेका अनुकरणीय बन सकता है । संसारमें सदाचारी मनुष्य देवदेवेंद्र और सार्वभौम राजाको भी मान्य होता है। सृष्टिके सदाचारोंमें “वृद्धानुगामिता" एक बड़े में
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