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( २६. ) सम्प्रदायोंके विद्वानों तथा धर्मगुरुओंमें शास्त्र, प्राचार और भाषा का ज्ञान एवं रीतिरिवाज एक ही हों, वहाँ भाषा और भावमें इतनी.. अधिक समानता रखने वाली घटनाओंका वर्णन, एक दूसरेसे सवथा भिन्न या एक दूसरेके प्रभावसे रहित मान लेना लोकस्वभाव की अनभिज्ञताको स्वीकार करना होगा।
(२-३) दूसरे पक्षके अनुसार यह कल्पना की जा सकती है । कि दोनों सम्प्रदायोंका उक्त वर्णन पूर्णरूपमें न सही, अल्पांशमें ही किसी सामान्य भूमिकामें से आया है । इस संभावनाका कारण यह है कि इस देशमें भिन्न-भिन्न समयोंमें अनेक जातियाँ आई हैं और वे यहीं श्राबाद होगई हैं। संभव है वैदिक और जैन संस्कृतिके अंकुर पैदा होनेसे पहले गोप या आहीर जैसी बाहरसे आई हुई या . मूलसे इसी देशमें रहनेवाली किसी विशेष जातिमें, कृष्ण और कंस के संघर्षणके समान या महावीर और देवोंके प्रसंगोंके समान, अच्छी. अच्छी बातें वर्णित हों, और जब उस जातिमें वैदिक और जैन संस्कृतिका प्रवेश हुआ या इन संस्कृतियोंके अनुयायियोंमें उसका सम्मिश्रण हुआ तो उस जातिमें प्रचलित और लोकप्रिय हुई उन बातोंको वैदिक एवं जैन संस्कृतिके ग्रन्थकारोंने अपने अपने ढंगसे अपने अपने साहित्यमें स्थान दिया हो जब वैदिक तथा जैनसंस्कृति के वर्णनोंमें कृष्णका संबंध ग्वालों और आहीरोंके साथ समान रूप से देखा जाता है और महावीरके जीवन-प्रसंगमें भी ग्वालोंका बार म्बार जिक्र पाया जाता है, तब तो दूसरे पक्षको और भी अधिक सहारा मिलता है । परन्तु वर्तमानमें दोनों संस्कृतियोंका जो साहित्य हमें उपलब्ध है और जिस साहित्यमें महावीर तथा कृष्णकी उल्लिखित घटनायें संक्षेपमें या विस्तारसे, समान रूपमें या असमानरूप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com