SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ DOMISAR १ वली श्रोता जनोने, जागृत करे ले. परंतु चतुर्गतिसंसार - 3 मण टाळी निर्वाण पद जे निज स्वरुप शुद्ध चेतन- पाम १ ते, अनुनवगम्य २ एटले इंजियज्ञानथी अर्तिडी आत्मस्वरुप स्पर्शीत बोध न थाय अनुन्नवज्ञाने थाय. माटे १००१ सो शास्त्रनी युक्तिउंथी पण अतिलिपरत्रमनुं ज्ञान थतुं नथी. एम महोपाध्याय यशोविजयजी ज्ञानसार ग्रंथे बवीसमा अनुन्नवाष्टके कहे . माटे हे नवनी नाळ तमारे 3 जो मोदना सुखनी चाहना होय तो, अनुन्नव झाननो खप करो अने इंजीठ संगे पोताना आत्मानी चेतना एक्यतापणे खीरनीरना अष्टांते पुद्गळ मिश्रित अनादि संबंधे. तेहने अनुन्नवरूप चांच एटले ज्ञान योगनी स्फुरणाए करीने 3 पलटावी घटंतर वृत्तिए स्वखरूपे सहज नावे परिणमावो अने मनयोगने अंतःजुवने झान खीले अने समाधि दोरमे बांधो एटले अनुन्नवज्ञान ज्योति, अति प्रकाशकर्ता, श्रहै नुलव जुवने उदय पामशे तीहां पोतानो आत्मा शिवरूप . वली मग्न . एटले ज्ञानामृते परिपूर्ण नरेलो सागर बे. वली सागरने विष थळनूमी द्रष्टिगोचर न आवे अने जळ आवे तेम अनुनव सागरने विषे, वर्णादि पुद्गळ अष्टिगोचर न आवे. वस्तुना तत्वनी गवेषणा उद्योतमय परपाटी शान आवे एम एटले खुल्लो आकाश प्रथुल सपाट उद्योतमय , ते ज्ञानामृत सागर मां स्थिर थयेला ते मग्न कहेवाय एटले आत्माना अनंता के गुण अने गुणगुणनो स्वन्नाव निन्न एटले जुदो जुदो डे VisaroRNINMoreDow AGRAGNIGroword १ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034802
Book TitleDharm Pravarttan Sara Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandbhai Swarupchand Shah
PublisherRatanchand Laghaji Shah
Publication Year1910
Total Pages344
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy