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॥ श्री गुरुभ्यो नमः ॥ अथ श्री धर्मप्रवर्तन सार ग्रंथ.
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॥उहा ॥ वंषु गुरु चरणे सदा, गुरुमुख अमिय ऊरंत ॥ , धर्मखान दीए देशना, ज्यु जलधर वरसंत ॥१॥
ते जीले चित पात्रमें, श्रोता मन थिर अंग ॥ . * ज्ञानामृत रस आतमा, पीवे निर्मल गंग ॥ २॥ . धर्म वर्तना सार ए, जिहां निश्चय व्यवहार ॥ गुरुकृपाथी पामीए, स्याद्वाद निरधार ॥ ३॥
॥अत्र नाषा लिख्यते ॥ . हवे या ग्रंथनुं नाम धर्म प्रवर्तन सारडे, तेना बे, है, नेदले. मिथ्यात्व सहित धर्मप्रवर्तन तथा सम्यक्त्वसहित धर्मप्रवर्त्तन, अहीं कोई कहेशे के धर्मप्रवर्तनमा मिथ्यावनो नेद शा माटे करवो पन्यो ? तेनो उत्तर मिथ्यात्व
तां पण देशविरतिपणुं तथा सर्व विरतिपणुं जीव व्यव-- ही हारथी ग्रह, वळी क्रियानो पात्र, झाननो खपी, ध्याना
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