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________________ थैत्यवहन धिर. GGAGROGGERGre १ अन्नव्य स्वन्नाव तेह ॥२॥ अपलटण धर्म एहनो, पलटे , नहीं निरधार ॥ कार्य प्रवृत्ति नहीं, अव्यक्तव्य विचार ॥ 9 ॥३॥ अव्य शक्ति धर्म ए कह्यो, हवे कहुँ पर्याय धर्म ॥ , स्याहाद इहां संपजे, ए जिन वचननो मर्म ॥४॥ कार्य प्रवृत्ति करे, उपयोग नाव स्वन्नाव ॥ व्यक्ति गुण गुणनी निन्नता, सोही नेद स्वन्नाव ॥ ५ ॥ उत्पाद् व्यय गुण वृत्तियें, अनंतो नाख्यो । अनिनव उत्पाद बे, व्यय पूरव दाख्यो ॥ ६॥ उत्पाद व्यय करे कार्यने, ध्रुवता कारणमांही। एही नव्य स्वन्नाव कह्यो, मुळ स्वन्नाव में त्यांही ॥ ७॥ पर्याय नय धर्म ए सही, शब्द नयनो पक्ष ॥शीवसुखदाता एह , अनुनव ज्ञान प्रत्यक्ष ॥७॥ एह धर्मने जाणवा, हेतु अव्य नाव ॥ अव्य हेतु सद्गुरु नला, नावे क्षय उपशम नाव ॥ ॥ पूरण कार्य जब हुवे, त्यां सब्धि दायक नाव ॥ ज्ञान शितळने चित्त वस्यों, ए शीव साधन दाव ॥१०॥ ॥ चैत्यवंदन ॥२ जु॥ ॥ सेवो पास संखेश्वरो मन्न शुद्धे ॥ ए देशी ॥ सुधानंद सिद्ध साधना साध्यरामी, वस्तु धर्म आराधना शुद्ध पामी॥ श्रनुनव योगी सहज गुण नोगी, कलंक कर्म त्यागी थया ते निरागी ॥ १ ॥ कहुँ तारा विचार अंतः मांही खोजी, चिदानंद मोजे रमे जेम तेजी ॥ अ-१ नादि मिथ्यात्वी अचेतंन जेवो, अमोवास रात्री काळी अंध तेवो॥२॥ समकित शुद्ध पामे जीहां जास, तीहां ६ (२२८ ) GGOOGonorrore 4 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034802
Book TitleDharm Pravarttan Sara Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandbhai Swarupchand Shah
PublisherRatanchand Laghaji Shah
Publication Year1910
Total Pages344
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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