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________________ pro GROR GRAGRAPronoure श्री धर्म प्रवर्तन सार. " हणतां रे केवळज्ञान नीहाळीये ॥ अज्ञान ॥ अव्रत ॥ प्रमाद० ॥ मोह० ॥ ५॥ त्रीजो पायो तेरमा गणना . ई अंतेरे ॥ आयुषने मेरे योग रोध किजीये ॥ चोथे पाये है सही अयोगी अकर्मी रे ॥ क्रियाने कायानोरे उच्छेद करी & सिजीये ॥ अज्ञानने० ॥ अवत० ॥ प्रमाद० ॥ मोह० ॥ है ६॥ धर्म शुक्ल ध्यान चउ चल पाया दाख्यारे॥ ते अग्निं तररे पांचमो तप नेद कीजीये ॥ बहो तप नेद कायोत्सर्ग है कहीजेरे ॥ ते नाव आवी गयोरे, कायानो उच्छेद तीहां लीजीये॥ अझानने ॥ अवतः ॥ प्रमाद० ॥ मोहः ॥७॥ ३ बाकी रह्या दशन्नेद तपना ते समजीरे, अंतर्दृष्टियेरे कर्म बळे एम कीजीये॥ ज्ञान शीतळ कहे ध्यान तपने आराधीरे॥ अकृत्य अनुन्नवरे योगें सिद्ध पद लीजीये ॥ अज्ञानने० ४ ॥ अव्रत० ॥ प्रमाद० ॥ मोह० ॥ ॥ इति तप पद पूजा ॥ ९ मी ॥ कळश. । ढाळ ॥ घणुं जीव तुं जीव जिनराज जीवो घणु ॥ ए देशी ॥ अथवा ॥ कमखानी देशी ॥ नवपद पूजीये मुक्ति पंथ लीजीये, देवगुरु धर्म त्रण तत्व जाणी ॥ शुद्ध श्रद्धा करी मिथ्यात्व परहरी, समकित १ सुमति बेहु लीयो ताण। ॥ नवपद पूजीये ॥ ए आंकणी , g॥१॥ परथम अरिहंत पदतणी पूजना, शत्रु द्रव्यत्नाव ) दोय हणतां थावे ॥ नावथी रागद्वेष अशुद्ध परिणतिये, हे द्रव्यथी गुणघाति चउक्षय पावे ॥ नव ॥ ॥ वीजी Par ' २६ (२०१ ) _ HEADEDNESeless Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034802
Book TitleDharm Pravarttan Sara Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandbhai Swarupchand Shah
PublisherRatanchand Laghaji Shah
Publication Year1910
Total Pages344
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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