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________________ શ્રી ધર્મ પ્રવર્તન સાર. दीये देशना ते न जूलीजे, शंका कंखा पूजी बेदी जेरे ॥ मन मोहन जगगुरु राया ॥ तुज दरसण पुन्य पायारे ॥ मन मोहन जगगुरुराया ॥ ए आंकणी ॥१॥ तुमे पंच महाव्रत धारी, दया वीस वसा निरधारी ॥ सत्य नाषा निरवद्यसारी, आतम धर्म शक्ति प्यारी रे।म०॥ अणदीधे सळी नहीं लेवे, योग त्रिकरणे नारी न सेवे ॥ रूप निरखण नजर न देवे, परिग्रह नव त्यागी रहेवेरे म०३॥ आशा तृष्णा मूर्जा उतारी, श्रा नव परनवनी नीवारी ॥ निर्लोनीनपुन्यग्राहकारी,झान ध्यानतप निर्जरा नारीरेमा नाव संवर अंतर योगी, नाव अध्यातम गुण नोगी॥ धर्म साधक शब्द संयोगी, करे करणी सदा उपयोगीरे मण्॥ शुद्ध पर्याय रमणता पा, सदबोध संयमश्री आश्॥ नेटे आचार्य उन्ना थाश, तिहां आनंदवृद्धि सवाझे म०६॥ निज गुण उपयोगे स्थिर, व्रते आचारीय थर वीर ॥ अनुन्नव सरोवर तीर, नयु ज्ञान अगाधसो नीररे म०७॥ तेमां स्नाने सनातक थावे, कर्म मेल अनादिनो जावे ॥ समश्रेणीए सिह गतिपावे, ज्ञानशीतळ पद त्रीजुंगावे रेम. इति आचार्य पद पूजा ॥ ३ ॥ ROGRAGarta GOOGGore पूजा ॥ ४ ॥ थी || दुहा ॥ पाठक पंचवीस गुणी, ज्ञान तणा नंमार ॥ . लणे नणावे साधुने, प्रनाविक सिरदार ॥१॥. NAGARIDngral DBIG Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034802
Book TitleDharm Pravarttan Sara Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandbhai Swarupchand Shah
PublisherRatanchand Laghaji Shah
Publication Year1910
Total Pages344
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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