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________________ १ दिये जीनपति देशना जलधार तिहां ॥ अहो० ॥१०॥ उप नेवा विगमेवा ध्रुवेवा, सूर्णी ज्ञान लहे गणधरपद लेवा, नव १ ॐ अव्यास्तिक पर्यास्तिक बोध श्हां, लब्धिए रचे द्वादश अंग है तिहां ॥ अहो० ॥ ११ ॥ मस्तक नमावे जीनपति आगे, . & इंड वासदेप आपे थाल नरी रागे; वासदेपवि गणधर है पद स्थापे, विरती प्रणामि थाय प्रनू मुख गपे ॥ अहो। ॥ १२ ॥ साधू साध्वी सर्व विरती नावे, देश विरती श्रावक श्राविका थावे; एम संघ चनविध जीनपति स्थापे, आझाये शिवपंथे कर्मबंध कापे ॥ अहो० ॥ १३ ॥ चौतीस अतिशयवंत गुण खाणी, पंचतिस गुणनर जीनपति वाणी; कंचन कमले प्रजू विहार करे, अणहूता कोम सूर सेवे मन खरे ॥ अहो० ॥ १४ ॥ दोष अढार रहित बार गुणस्वंता, दायक नव लब्धिए पूर्ण संता; जीन नाम कर्मनो 3 विपाक उदय नयो, तेने खेरवे त्यां नव्यने ए कारण थयो ॥ अहो० ॥ १५ ॥ षट् अव्य वस्तु जीनवर नाखे, तेमां १ एक जीव पंच अजीव दाखे, पंच अजीव परने हेतु दाख्या ए जीवने निज हेतुपर अहेतु नाख्या ॥ अहो० ॥ १६ ॥जी१ वने हेतु अहेतु नदिकताए कहीए, वस्तुए निज हेतु स दहिए, एम जाण। निज गुणगत लिन थए, शक्ति नाव ६ ते व्यक्तिपणुं लहे तहींए ॥ अहो० ॥ १७ ॥ एम चउ है निदेपे जीनवर जाणी, तरणतारण घटगत नाव आणी; १ 9 जीन गुण गावो ध्यावो नव्य प्राणी, गुण गाश्ने थया अ- के हे नेक गुण खाणी ॥ अहो ॥ १७ ॥ सयोगि केवळी गणे ६ LicensDogsgirl PROMOGrogrroraveenarendramod Door Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034802
Book TitleDharm Pravarttan Sara Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandbhai Swarupchand Shah
PublisherRatanchand Laghaji Shah
Publication Year1910
Total Pages344
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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