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થી ધર્મ પ્રવતન સાર,
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व्य प्रव्य प्रत्ये अनंत गुण जाख्या, गुण गत अनंत पर्याय दाख्या, प्रदेस समूदाय तिहां राख्या, तेहिज सत्ता एम ग्रंथे साख्या ॥ अहो० ॥२॥ ति पर्याये पूर्ण नासे कार्य नहि अव्यक्तव्यतासे, व्यक्तव्य सामर्थ पर्याय तिहां; न लहे उपयोग विण नाव इहां ॥ अहो० ॥ ३ ॥ उपयोग ज्ञान दर्शन हिनेदे, लहे नय ऋजुसूत्र तद्गत वेदे; करी:करण अपूर्व ग्रंथी नेदे, लहे समकित मिथ्या वने दे ॥ अहो० ॥ ४ ॥ इहां शब्द नय साध्य साधन एकता, गुणगत गुण वृत्तिनी टेकता; स्वस्वरूप रमणीये नहि अन्य नेगता, बेदी मोहनी उपाधि लहे यथाख्यातता ॥ अहो०
॥ ५॥ इहां दीण मोह गणे समनिरूढ आवे, तिहां 3त्रण घाती कर्मनो क्षय थावे; लहे अनंत चतुष्ट व्यक्ति
नावे, अरिहंत सयोगि केवळी गण पावे ॥ अहो० ॥६॥
सयोगि केवळीना दोय नेद जाख्या, एक तिर्थकरने बीजा हूँ सामान्य दाख्या; बेहु देव तत्व अंतरगत सरखा, बाह्यमां विशेष तिर्थकरने परख्या ॥ अहो० ॥ ७॥ ए जीन देव चौ निदेप दाखं, प्रयम जीन नाम जीननुं ना; स्थापना जीन जीन पमिमा नीरखी, जीनने जीन पमिमा बेहु कही सरखी ॥ अहो० ॥७॥ जीन पमिमा नव अंगे पूजो, निज गुण हेतु जाणी तद्गत बूमो; हवे अव्य जीन नाखू नवि
सांनळो, बांध्यू जीन नाम कर्म ते ऽव्य जीन नलो ॥ १ 5 श्रहो० ॥ ए ॥ नाव जीन समोवसरण ज्यांहि, अष्ट प्राति- है हे हार्यादि ऋद्धि त्यांहि; बार पर्षदा मिले श्रावीने जीहां, ६
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