SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ romarawRRISONGramma श्री धर्म प्रवर्तन सार. वीण हेतु न चले ॥ ११॥ कारणने अन्नावे सो कार्य न , संजवे ॥ चनु ते काळी राते देखे अनुन्नवे ॥ एम समजी १ तुमे नवी कारणने मानजो॥ निमित्तने उपादान संनवे सो जाणजो॥ १२ ॥ गुण चोथो थयो सिद्ध धर्मास्तिकायनो ॥६ हवे करुं विस्तार चार पर्यायनो ॥ खंध एक अव्य पर्याय है रह्यो लोकाकासमां ॥ उर्ध्व अधो तिर्गदी ते कल्पी ए दे-6 शमां ॥ १३ ॥ ए बीजो त्रीजो प्रदेश कहीया असंख्यए ॥ लोकाकास प्रमाणे प्ररुप्या जीनंदए ॥ अगुरु लघु पर्याय चोथो परिणतिए ॥ हानी वृद्धि बार गुण नीवृत्तिए ॥१४॥ ए चार पर्याय गुण चार दाखीया ॥ उपगारी गुरु मुखे सुएया एम नाषीया ॥ ज्ञान शीतल करीनविजन अव्यने जाणजो॥ थीर मने करजो विचार हठ नहि ताणजो ॥ १५ ॥ ढाल पांचमी संपूर्ण ॥ PROVINCLES PareAGrSAGARAGre Gre Greal ProGARGror ॥ ढाळ छही ॥ देखो गति देवनीरे-ए देशी. अजीव अरूपी हवे वर्णवुरे ॥त्रण द्रव्य व्याख्या आ ढाळ॥ अधर्मास्ति श्राकाशास्तिरे॥ कहुं वलीत्रीजो काल ॥ ट्र सोनागीजन सांनलोरे ॥ व्याजोग निश्चय ज्ञान अ नुन्नवसुं मील्योर ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥प्रत्येके त्रण प्रव्य9) नारे ॥ गुणपर्याय चार चार ॥ त्रण गुण पूरवपरेर ॥ १ धर्मास्ति ए विचार ॥ सोनागी ॥२॥ अरूपी अचेतन हे बीजोर ॥ श्रक्रीय त्रीजो एम ॥ विस्तारे वर्णव कोरे ॥ _ (१३४) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034802
Book TitleDharm Pravarttan Sara Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandbhai Swarupchand Shah
PublisherRatanchand Laghaji Shah
Publication Year1910
Total Pages344
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy