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श्री धर्म प्रवर्तन सा२. अनिलाषा करवी, ज्ञानीए निवारी ने अव्यावाध सुख सारो, एटले आनंदोपेत अतिर्षियजनित अव्यावाध सुख १
डे, माटे सारो कयो, ज्ञानीपुरुषोने नोग करवाने, अनुमोई दवाने योग्य . अनादि अनंत है कहेतां मोक्षगतिने विषे है ६, सिद्धनगवान अव्यावाध सुख जोगवे , ते सुख अनादि है संबंधे जे अने अनंत है कहेतां अंत एटले कोश्काळे 8 नाश थावानो नथी, यहां कोई कहेशे के सिद्ध थाय तेनी
तो आदि अने तमे तो अनादि संबंधे अव्याबाध सुख कहो बो, तेनो उत्तर-हे ना सिद्ध थाय तेनी तो आदि 3, पण काळनी आदि नथी, वळी सिद्धगतिनी पण श्रादि हूँ नथी के अमुककाळे अमुक पुरुष प्रथम सिद्ध थया ते 3 श्रादि कहीए, माटे सिद्धगति आश्रीने अनादि अनंत
नांगो लागे, ते कह्यो. व्यापे निज प्रव्यमांही कहेतां जीहां १ सिद्धनगवान रह्या बे तीहां धर्मास्तिकाय रह्यो बे, अधर्मास्तिकाय रह्यो बे, आकाशास्तिकाय रह्यो बे, पुद्गलास्ति
काय पण अनंता अव्य रह्या डे अने जीवास्तिकाय जे पोह ताथी अन्य बीजा जीवो ते पण सिद्धसंसारी अनंता रह्या १ १. एम पंचास्तिकाय एक क्षेत्र अवगाहीने नेळा रह्या बे,
तो पण सिध्धनगवान एक पोतीका अव्यमांही व्यापक9) पणुं करी परिणमी रह्या , अन्य प्रव्यमा व्यापक परिण- ,
मन कोकाळे थाय नहि. गुणपर्याय मांही, कहेतां एक 9 पोताना अव्यना अनंता गुण , अने एक एक गुणना ६ अनंतापर्याय ने ते गुणपर्याय पोतपोतीका गुण गुणगत, ७ in६
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