SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Gorasairannel G BAMMAGARASIRSAGAR 1 શ્રી ધર્મ પ્રવર્તન સાર. उपयोग दृष्टि स्थापी डे जेणे वळी यन्मुहुर्मुहु कहेतां वा६ वार " नाव्यते कहेतां” निज स्वरूपने विषे, तन्मय १ एकत्वपणे, अन्नेद स्वरूपे परिणाम पामवा पूर्वक उपयोगे अनुनवे ले. तदेव ज्ञान कहेतां तेहीज ज्ञान, मुत्कृष्टं कहेतां उत्कृष्टामा उत्कृष्टुं निज स्वरूप अवस्थान रूप निर्वाण पद पामवाने कारण जाणवू. पण बीजो निबंधो कहेतां हां आवश्यकादि क्रियानो वा उपवासादि तपनो, वा लोचादि कष्टनो, वा पूजा प्रनावनानो, वा तीर्थ यात्रानो इत्यादि कारणनो श्राग्रह एटले करवापणानो, निज स्वरूप प्रगट एटले व्यक्ति नावे करवाने अर्थे, जूयसा कहेतां घणुंज, नास्ति कहेतां ए कारणोनुं शहां ज्ञानयोगीश्वर महा मुनिने कंश प्रयोजन नथी, एक ज्ञानयोगे दा. यक नावनी लब्धि पामीने निर्वाण पद पामे. शहां को कहेशे के तमे पण आगळ दश प्रकारनो कल्प व्यवहार प्ररूप्यो तेमां श्रावश्यकादि क्रिया ते महा मुनीनी करणी निर्वाण पद अर्थे कही बे. अने तमे शहां केम ना पामो । बो, तेनो उत्तर त्रीजा श्लोकथी करीए बीए. स्वन्नाव सान संस्कार कारणं ज्ञान मिष्यते ॥ ध्यांध्य मात्र मतस्त्वन्यत्तथा चोक्तं महात्मना ॥३॥ अर्थः-स्वन्नाव लान कहेतां आत्माना स्वनावमां झान, दर्शन, चारित्र, वीर्यादि अनंता गुण जे अने एक एक गुणना अनंता पर्याय बे, वळी गुण गुण प्रत्ये निन्न एटले हे जुदो जुदो स्वन्नाव श्रआत्मामा रह्यो . ते ज्ञाननो जाणवा १ (१०५) GrandmaraGRAGONR. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034802
Book TitleDharm Pravarttan Sara Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandbhai Swarupchand Shah
PublisherRatanchand Laghaji Shah
Publication Year1910
Total Pages344
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy