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________________ GAR GIRRORRORS श्री धर्म प्रवर्तन सार, १ ग्रहण अयोग्य ग्रदै नही ।। ग्रह्यो न हो जेह ॥ १ जाने सर्व स्वजावने ॥ स्वपर प्रकाशक तेह ॥१॥ त्याग ग्रहण बाहिर करे ॥ मूढ कुशळ अंतरंग ॥ वाहिर अंतर सिद्धकू ॥ नहीं त्याग औरसंग॥४६॥ . एम जाणीने पोतानी वस्तुए संतोषी थया तेमने निश्चयथी त्याग कहीए. वली तेमनेज निग्रंथ कहीए. अहै कर्म कहेता कर्मशब्दनो अर्थ क्रिया . ते अकार शब्दे 3 बाह्य नावे नहीं करवी तेने अकर्म कहीए. एटले विरोध है नही करवो. उद्धेग नही करवो इच्छा वांच्या मोहवशे १ थाय ते नही करवी मननी चपळ वृत्तिए दूर्ध्याननो ध्याता थाय ते नही कर, अहं ममत्व नही करवो एम नही करवानुं कडं तेज कर्म उच्यते कहेतां तेने निग्रंथ पदनी वली संवरनावनी अने मोक्ष पंथनी अनुकुळ हेतु शुद्ध प्रवृत्तिरूप क्रिया कहीए एटले निग्रंथ पदनी बाह्य नावमां अकरवापणे करणी . एम उच्यते कहतां श्रा- १ १ मझानी महात्मा पुरुषो कहे डे' (१) वली कछु , बाह्यवृत्तिये गुणगणे चढवं, तेतो जमना लामा॥ १ संयम श्रेणि शिखर चढावे, अंतरंग परिणामारे॥ लोगा नाळविया मत लुलो ६ वळी परमानंद पञ्चीसीए,-- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034802
Book TitleDharm Pravarttan Sara Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurchandbhai Swarupchand Shah
PublisherRatanchand Laghaji Shah
Publication Year1910
Total Pages344
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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