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[६] भारतीय विद्या अनु पूर्ति
[वर्ष २ वधारे लोकप्रिय बनी होय अने तेनो जो पठन-पाठनमां वधारे प्रचार थयो होय तो, तेनी भाषा - रचनामां जुदा जुदा जमानाना अनेक जातनां रूपो अने पाठभेदो उमेराई, ते वघारे अनवस्थित रूप धारण करे छ; अने ते साथे कोई भाषातत्त्वानभिज्ञ संशोधक साक्षरना हाथे जो तेना जीर्ण देहy कायाकल्प थई जाय तो ते तद्दन नूतन रूप पण प्राप्त करी ले छे ।
आवी जूनी कृतिओनुं मूळ खरूप मेळववा माटे अधिक संख्यामां अने जेम बने तेम वधारे जूनी लखेली प्रतिओ मेळववी जोइए अने तेमना सूक्ष्म अवलोकन अने पृथक्करणना आधारे पाठ - विचारणा थवी जोइए। आ पद्धतिए कार्य करवाथी ज आवी प्राचीन कृतिओनो आदर्शभूत पाठोद्धार थई शके अने कर्तानी शुद्ध भाषानो परिचय मळी शके ।। __ पण जो एवी कृतिनी कोई अन्य प्रति न ज मळी शकती होय तो पछी तेने तो तेना यथालिखित रूपमा ज प्रसिद्ध करवी जोइए अने तेमां जे काई संशोधन आदि करवा जेवू जणातुं होय ते तेनी नीचेनी पादपंक्तिमां, के परिशिष्टरूपे पृथक्-टिप्पण विगेरेना रूपमां, बताव, जोइए । केटलाक विद्वानो आवी जूनी कृतिओमां जे इच्छानुसार पाठसंशोधनो करवानी अने मूळ लेखमां परिवर्तनो करवानी पद्धतिर्नु अवलंबन करे छे, ते सर्वथा अशास्त्रीय अने भाषाभ्रम उत्पन्न करनारी होई परित्यजयनीय छ ।
प्रस्तुत रासनी मने मात्र उपर जणावेली एक ज प्रति मळी आवी छ । पाटण विगेरेना बीजा बीजा भंडारोमां, घणां वर्षोथी आनी तपास करी रह्यो छु, पण ते क्यायथी उपलब्ध थई शकी नथी । एनी एक बीजी प्रति, आगरामा अवस्थित श्रीविजयधर्मलक्ष्मी ज्ञानमंदिरमा होवानी नोंध, साक्षर श्रीमोहनलाल दलीचंद देशाईना, जैन गूर्जर कविओ नामना महान् ग्रंथना भाग १ पृ. १ उपर, मळे छ । पण, विद्याविहारी मुनिराज श्रीविद्याविजयजी महाराज द्वारा, आगरामां ए प्रतिनी तपास करतां जाणवा मळ्यु के ते प्रति त्यांथी गुम थई गई छे - विगेरे ।
आम मूळचं बीजं कोई प्रत्यंतर न मळवाथी, आ रास जे रूपे ए एकमात्र जूनी प्रतिमां लख्नेलो मळी आव्यो छे तेवो ज अहिं मुद्रित कर्यो छे।।
प्रति सारी पेठे जूनी अने प्रमाणमां शुद्धतापूर्वक लखेली होवाथी, रचनामां उपर सूचवी छे तेवी 'इ-उ' संबंधेनी अनवस्थता अने कांईक जोडणीनी शिथिलता सिवाय, बीजी कोई खास अपभ्रष्टता थई नथी; अने भाषा लगभग असलना जेवा ज रूपमां जळवाई रही छे ।
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