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भगवान महावीर और उनका समय संचय करके ही यह ग्रंथ बनाया गया है । यथाः
पुव्वायरियकयाई गाहाई संचिऊण एयत्थ । सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संवसंतेण ॥४६॥ रइयो दंसणसारो हारो भव्वाण णवसए णवए । सिरिपासणाहगेहे मुविसुद्ध माहसुद्ध दसमीए ॥५०॥
इससे उक्त गाथाओंके और भी अधिक प्राचीन होनेकी संभावना है और उनकी प्राचीनतासे विक्रमसंवत्को विक्रमकी मृत्यका संवत् माननेकी बात और भी ज्यादा प्राचीन होजाती है। विक्रमसंवत्की यह मान्यता अमितगतिके बाद भी अर्से तक चली गई मालूम होती है । इसीसे १६वीं शताब्दी तथा उसके करीबके बने हुए ग्रन्थों में भी उसका उल्लेख पाया जाता है, जिसके दो नमूने इस प्रकार हैं :
"मृते विक्रमभूपाले सप्तविंशतिसंयुते । दशपंचशतेऽब्दानामतीते शृणुतापरम् ॥१५७।। लुङ्कामतमभूदेकं ................... ॥१५॥
_ --रत्ननन्दिकृत, भद्रबाहुचरित्र । "सषट्त्रिंशे शतेऽब्दानां मृते विक्रमराजनि । सौराष्ट्र वल्लभोपुर्यामभूतत्कथ्यते मया ॥१८८॥
-वामदेवकृत, भावसंग्रह । इस संपूर्ण विवेचन परसे यह बात भले प्रकार स्पष्ट हो जाती है कि प्रचलित विक्रमसंवत् विक्रमकी मत्युका संवत है, जो वीरनिर्वाणसे ४७० वर्ष ५ महीनेके बाद प्रारंभ होता है। और इस लिये वीरनिर्वाणसे ४७० वर्ष बाद विक्रम राजाका जन्म होनेकी ज. बात कही जाती है और उसके आधार पर प्रचलित वीरनिर्वाण
सवत् पर आपत्ति की जाती है वह ठीक नहीं है । और न यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com