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महावीर-परिचय भलाकर आपसमें प्रेमके साथ रल-मिलकर बैठते और धमेश्रवण करते थे-मानों सब एक ही पिताकी संतान हों । इस आदर्शसे समवसरणमें भगवान महावीरकी समता और उदारता मूर्तिमती नजर आती थी और वे लोग तो उसमें प्रवेश पाकर बेहद संतुष्ट होते थे जो समाजके अत्याचारोंसे पीड़ित थे, जिन्हें कभी धर्मश्रवणका,शास्त्रोंके अध्ययनका, अपने विकासका और उच्चसंस्कृतिको प्राप्त करनेका अवसर ही नहीं मिलता था अथवा जो उसके अधिकारी हो नहीं समझे जाते थे। इसके सिवाय, समवसरणकी भूमिमें प्रवेश करते ही भगवान महावीरके सामीप्यसे जीवोंका वैरभाव दूर हो जाता था, कर जन्तु भी सौम्य बन जाते थे और उनका जाति-विरोध तक मिट जाता था। इसीसे सर्पको नकुल या मयूरके पास बैठनेमें कोई भय नहीं होता था, चहा बिना किसी संकोचके बिल्लीका आलिंगन करता था, गौ और सिंही मिलकर एक ही नाँदमें जल पीती थीं और मृग-शावक खुशीसे सिंह-शावक के साथ खेलता था । यह सब महावीरके योग बलका माहात्म्य था। उनके आत्मामें अहिंसाकी पूर्ण प्रतिष्ठा हो चुकी थी, इसलिये उनके संनिकट अथवा उनकी उपस्थितिमें किसीका वैर स्थिर नहीं रह सकता था । पतंजलि ऋषिने भी, अपने योगदर्शनमें, योगके इस माहात्म्यको स्वीकार किया है। जैसा कि उसके निम्न सत्रसे प्रकट है:
अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ॥३॥
जैनशाखोंमें महावीरके विहार-समयादिककी कितनी ही विभतियोंका-अतिशयोंका वर्णन किया गया है परन्तु उन्हें यहाँ , पर छोड़ा जाता है । क्योंकि स्वामी समन्तभद्रने लिखा है :
देवागमनभोयान-चामरादि-विभूतयः। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com