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भगवान महावीर और उनका समय वैशाखसितदशम्यां हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते चंद्रे । आपकश्रेण्यारूढस्योत्पन्नं केवलज्ञानम् ॥१२॥
-निर्वाणभक्ति । इस तरह घोर तपश्चरण तथा ध्यानाग्नि-द्वारा, ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय मोहनीय और अन्तराय नामके घातिकर्म-मलको दग्ध करके, महावीर भगवानने जब अपने आत्मामें ज्ञान, दर्शन, सुख, और वीर्य नामके स्वाभाविक गुणोंका परा विकास अथवा उनका पूर्ण रूपसे आविर्भाव कर लिया और आप अनुपम शुद्धि, शक्ति तथा शान्तिकी पराकाष्ठाको पहुँच गये, अथवा यों कहिये कि आपको स्वात्मोपलब्धि रूपी 'सिद्धि' की प्राप्ति हो गई, तब आपने सब प्रकारसे समर्थ हो कर ब्रह्मपथका नेतत्व ग्रहण किया और संसारी जीवोंको सन्मार्गका उपदेश देनेके लिये उन्हें उन की भल सुझाने, बन्धनमुक्त करने, ऊपर उठाने और उनके दुःख मिटानेके लिये-अपना विहार प्रारम्भ किया। अथवा यों कहिये कि लोकहित-साधनका जो असाधारण विचार आपका वर्षों से चल रहा था और जिसका गहरा संस्कार जन्मजन्मातरोंसे आपके आत्मामें पड़ा हुआ था वह अब संपूर्ण रुकावटोंके दूर हो जाने पर स्वतः कार्यमें परिणत हो गया।
विहार करते हुए आप जिस स्थान पर पहुँचते थे और वहाँ आपके उपदेशके लिये जो महती सभा जुड़ती थी और जिसे जैनसाहित्यमें 'समवसरण' नामसे उल्लेखित किया गया है उसकी एक खास विशेषता यह होती थी कि उसका द्वार सबके लिये मुक्त रहता था, कोई किसीके प्रवेशमें बाधक नहीं होता था-पशुपक्षी तक भी आकृष्ट होकर वहाँ पहुँच जाते थे, जाति-पांति छूताछूत
और ऊँचनीचका उसमें कोई भेद नहीं था, सब मनुष्य एक ही मनुष्यजातिमें परिगणित होते थे, और उक्त प्रकारके भेदभावको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com