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________________ ४३९ भगवान् महावीर कलह-प्रिय और संकीर्ण हृदय साधुओं ही के प्रताप से इन मत मतान्तरों की उत्पत्ति और उनका प्रचार हुआ। इन मतभेदों का जो भयंकर परिणाम हमारे धर्म और समाज पर हुआ और वर्तमान में हो रहा है वह हमारी आँखों के सम्मुख उपस्थित है । कुछ पाठक हम पर अवश्य इस बात का आरोप करेंगे कि भगवान महावीर का जीवन-चरित्र लिखनेवाले को इन सब झगड़े बखेड़ों से क्या मतलब है ? उसे तो जीवन चरित्र लिखकर अपना कार्य समाप्त कर देना चाहिए, पर लेखक का मत इससे कुछ भिन्न है। लेखक अपना कर्तव्य समझता है कि महावीर का जीवन लिखते हुए वह उनके पवित्र सिद्धान्तों से पाठकों को परिचित करे, और उनके पवित्र नाम की आड़ में समाज के अन्तर्गत जो अनाचार और अत्याचार हो रहे हैं उनसे पाठकों को परिचित करे। भगवान महावीर के पवित्र नाम की आड़ में आज समाज के अन्तर्गत कौन सा दुष्कृत्य नहीं हो रहा है। हम लोग अपने मतभेद को भगवान महावीर के पवित्र नाम के नीचे रखकर उसका प्रचार करते हैं। हम लोग भगवान महावीर को अपनी जायदाद-अपनी सम्पत्ति की तरह समझ कर दूसरों से वह हक छीन लेने को कोशिश कर रहे हैं, हम लोग अपने मत-भेद को सर्वज्ञ कथित बतला कर दुनिया में सर्वज्ञत्व की हँसी उड़वा रहे हैं, यहाँ तक की हम लोग अपने तीर्थंकरों की मूर्तियों के लिए न्याय के रङ्ग-मंच पर जाकर अपना हक साबित करने के लिए लाखों रुपयों का पानी कर देते हैं। कहाँ तो हमारा उदार पवित्र धर्म और कहां ये हेयदृश्य ! हा! भगवान् महावीर!!! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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