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________________ भगवान् महावीर ३८४ किये हुए दिव्रत के दीर्घकालिक नियम को एक दिन या अमुक समय तक के लिये परिमित करना, इसी तरह दूसरे व्रतों में जो छूट हो उसको भी संक्षेप करना। प्रोषध व्रत-यह धर्म का पोषक होता है इसलिए-'प्रोषध' कहलाता है। इस व्रत का अभिप्राय है-उपवासादि तप करके चार या आठ पहर तक साधु की तरह धर्म कार्य में प्रारूढ़ रहना। इस प्रोषध में शरीर की, तैलमर्दन आदि द्वारा शुश्रूषा का त्याग, पाप व्यापार का त्याग तथा ब्रह्मचर्य पूर्वक धर्मक्रिया करने को, शुभ ध्यान को, अथवा शास्त्र मनन को, स्वीकार किया जाता है । त्याग करना भी इसो व्रत में आ जाता है। परिग्रह परिमाण-इच्छा अपरिमित है। इस व्रत का अभिप्राय है-इच्छा को नियमित रखना। धन, धान्य, सोना, चाँदी घर, खेत, पशु आदि तमाम जायदाद के लिए अपनी इच्छानुसार नियम ले लेना चाहिए। नियम से विशेष कमाई हो तो उसको धर्म कार्य में खर्च कर देना चाहिये। इसका परिमाण नहीं होने से लोभ का विशेष रूप से बोझा पड़ता है और उसके कारण आत्मा अधोगति में चली जाती है। इसलिए इस व्रत की आवश्यकता है। दिग्व्रत-उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम इन चारों दिशाओं और ईशान, आग्नेय, नैऋन्य और वायव्य इन विदिशाओं में जाने आने का नियम करना, यह इस व्रत का अभिप्राय है। बढ़ती हुई लोभ वृत्ति को रोकने के लिये यह नियम बनाया गया है। . भोगोपभोग परिमाण-जो पदार्थ एक ही बार उपभोग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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