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________________ भगवान् महावीर • चराने का अस्थिर व्यवसाय छोड़ कर खेती करना प्रारम्भ किया । इस व्यवसाय के कारण ये लोग स्थायी रूप से मकान बना २ कर रहने लगे। धीरे धीरे इन मकानो के भी समुदाय बनने लगे, और वे ग्राम संज्ञा से सम्बोधित किये जाने लगे। इस प्रकार स्थायी रूप से जम जाने पर कुदरत के कानूनानुसार इन लोगों के विचारों में परिवर्तन होने लगा। इधर उधर फिरते रहने की अवस्था में उनके हृदय में स्थल अभिमान उत्पन्न नहीं हुआ था, पर अब एक स्थल पर स्थायी रूप से जम जाने के कारण उनके मनोभावों में स्थलाभिमान का संचार होने लगा। इसके अतिरिक्त यहां के मूल निवासियों को इन लोगों ने अपने गुलाम बना लिये थे और इस कारण उनके हृदय में स्वामित्व, और दासत्व, श्रेष्ठत्व और हीनत्व की भावनाओं का संचार होने लग गया। उनके तत्कालीन साहित्य में जित और जेता की तथा आर्य व अनार्य की भावनाएँ स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती हैं। ये भावनाएँ यहीं पर खतम न हुई। अभिमान किसी भी छिद्र से जहां घुसा कि फिर वह अपना विस्तार बहुत कर लेता है । आर्यों के मनमें केवल अनार्यों के ही प्रति ऐसे मनो-विकार उत्पन्न होकर नहीं रह गये प्रत्युत आगे जाकर उनके हृदयों में आपस में भी ये भावनाएँ दृष्टि गोचर होने लगी। क्योंकि इन लोगों में भी सब लोग समान व्यवसाई तो थे नहीं सब भिन्न भिन्न व्यवसाय के करने वाले थे। कोई खेती करता था, कोई व्यापार करता था, कोई मजदूरी करता था तो कोई अध्ययन का काम करके अपना जीवन निर्वाह करता था। कोई उच्च कर्म करता था और कोई निकृष्ट। उत्कृष्ट व्यवसायी लोग निकृष्ट व्यव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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