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________________ भगवान् महावीर ३५८ मय स्थिति के भी सात विभाग कर दिये गये हैं। . १. शुभेच्छा', २. विचारण। ३. तनुमानसा, ४. सत्वापत्ति, ५, असंसक्ति२, ६. पदार्थ भावुकी, ७. तुर्यगा । पहली सात भूमिका में अज्ञान का प्राबल्य रहने से वे अविकास काल की और अन्त की सात भूमिकाओं में ज्ञान E. "मैं मूर्ख ही क्यों बना रहूं; किसी शास्त्र या सज्जन के द्वारा आत्मावलोकन कर अपना उद्धार क्यों न करलूँ।" इस प्रकार की वैराग्यपूर्ण इच्छा को “शुभेच्छा" कहते हैं। ६. उस शुभेच्छा के फल स्वरूप वैराग्याभ्यास के कारण सदाचार में जो प्रवृति होती है; उसे “विचारणा" कहते हैं। १०. शुभेच्छा और विचारणों के कारण इन्द्रियों अथवा विषयों से जो उदासीनता हो जाती है। उसे "तनु मानसा' कहते हैं । ११. उपरोक्त तीन भूमिकाओं के अभ्यास से चित्त में जो वृति होती है, और उस वृति के कारण जो आत्मा को स्थिति होती है उसे "सत्वापत्ति" कहते हैं । १२. उपरोक्त चार भूमिकाओं के अभ्यासांसे चित्त में जो एक प्रकार का आनन्द प्राप्त होता है; उसे "असंसक्ति” भूमिका कहते हैं। १३. पाँच प्रक र की भूमिका के अभ्यास से बढ़ती हुई आत्मा की स्थिति से एक ऐसी दशा प्राप्त होतो है कि जिससे वाह्य और अन्तरंग सब पदार्थों की भावना छूट जाती है । केवल दूसरों के प्रयत्न से शरीर की सासारिक यात्रा चलती है । इसे "पदार्थ भावुको" भूमिका कहते हैं। १४. छः भूमिकाओं के अभ्यास से अहंभाव का ज्ञान बिल्कुल शमनहो जाने से एक प्रकार की स्वभाव निष्टा प्राप्त होती है। उसे "तुर्यगा" कहते है । 'तुर्यगा की अवस्था' जीवन मुक्त में होती है । तुर्यगा के पश्रात् की अवस्था 'विदेह युक्त' होती है; ( योग वशिष्ट उत्पत्ति प्र. स. ११८ तथा निर्वाण से १२०) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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