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________________ ३५१ भगवान् महावीर ऊपर बताये हुए जिन कारणों से नवीन बन्धन होता है उनका अभाव होने से नवीन बन्धन का होना रुक जाता है और जो सञ्चित कर्म हैं वे अपनी स्थिति पूरी करके अपने आप समाप्त हो जाते हैं और उनको जीव तप आदि से भी छिपा देते हैं । जब नवीन कर्मों का आश्रव नहीं होगा और पूर्व-बद्ध कों की निर्जरा हो जायगी तब आत्मा से सब कर्मों के पृथक होने के कारण आत्मा शुद्ध हो जायगी और उसकी इस शुद्ध अवस्था को हो मोक्ष कहते हैं। मोक्ष में आत्मा से सब कर्म पृथक् हो गये, इसलिए कर्मजनित विकार भी आत्मा से दूर हो गये। ये विकार ही नवीन बन्धन के कारण हैं, इसलिए मोक्ष प्राप्त होने के बाद कर्म फिर मल से लिप्त नहीं होते, अर्थात् मुक्त जीव मुक्ति से वापस नहीं आ सकते । जिस मुक्ति से वापस आना पड़े वह मुक्ति कैसी ? आवागमन तो बना ही रहा । जो लोग मुक्ति से वापस आना मानते हैं वे तो मुक्ति शब्द का प्रयोग करके संस्कृत-भाषा का भी खून करते हैं । वे कहते हैं कि ईश्वर जीव को वेदोक्त ज्ञान-सहित वेदोक्त कमों के करने का फल भोगने के लिए मुक्ति देता है और कर्म मर्यादासाहित होते हैं। उनका मुक्ति-रूप फल भी मर्यादा-सहित होता है, अर्थात् जीव मुक्ति में अपने कर्मों का फल भोग कर कुछ थोड़े से बचे हुए कर्मों के कारण जन्म-मरण करता हुआ संसार मै फिर पर्यटन करता है। उन्हें यह सोचना चाहिए कि मुक्ति तो जीव के सर्वथा कर्म-रहित होने को कहते हैं और कर्मों के फल तो संसार में आवागमन करके ही भोगे जाते हैं। जैन-धर्म में यह माना जाता है कि इस मध्यलोक और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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