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________________ भगवान् महावीर ३५० धनहरणरूप जो यह क्रिया की है उसे उसने स्वतन्त्रता से की है या ईश्वर की प्रेरणा से। यदि उसने उसे स्वतन्त्रता से की है और उसमें ईश्वर की कुछ भी प्रेरणा नहीं है, तो धनाढ्य को जो कर्म का फल मिला वह ईश्वर-कृत नहीं हुआ और यदि. ईश्वर को प्रेरणा से चोर ने धन चुराया है, तो चोर कर्म के करने में स्वतन्त्र नहीं रहा और वह निर्दोष है, पर उसी चोर को वही ईश्वर राजा के द्वारा चोरी का दण्ड दिलाता है। पहले तो उसने स्वयं उससे चोरी करवाई और फिर स्वयं ही उसको दण्ड दिलाता है, इससे ईश्वर के न्याय में बड़ा भारी बट्टा लगता है । संसार में जितने अनर्थ होते हैं उन सबका विधाता ईश्वर ठह. रेगा, परन्तु उन सब कर्मों का फल बेचारे निर्दोष जीवों को भोगना पड़ेगा। कैसा अच्छा न्याय है । अपराधी ईश्वर और दण्ड भोगें जीव ! जो लोग किसी पैग़म्बर को मुक्ति दिलानेवाला मानते हैं वे यह कहते हैं कि जीव इतना पापी है कि वह अपने आप पाप से निवृत्त नहीं हो सकता है । यदि ऐसा हो तो एक श्रेष्ठ से श्रेष्ठ पुरुष, जिसको ऐसे नजात दिलानेवाले पैग़म्बर के नामनिशान का पता नहीं है मुक्ति से अथवा स्वर्ग-राज्य से निर्दोष वञ्चित रह जायगा । यह कितना बड़ा जुल्म होगा। असल में इनके दार्शनिक यह नहीं समझे हुए हैं कि जीव अपने परिणामों के निमित्त से पूर्व बँधे कर्मों का भीउत्कर्षण, अपकर्षण, सङ्क्रमण, आदि करता है और इससे उनकी शक्ति को अपने पुरुषार्थ से उपदेश आदि के निमित्त से धर्म-कार्य में प्रवृति करके हीन करता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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