SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान् महावीर ३४८ ___ कर्म आठ प्रकार के होते हैं-(१) ज्ञानावरणीय जो जीव के ज्ञाग को ढकते हैं, (२) दर्शनावरणीय जो जीव के देखने को शक्ति को ढकते हैं, (३) मोहनीय जो आत्मा को भ्रम रूप करते हैं, (४) अन्तराय जो वाञ्छित कार्य में विघ्न पहुँचाते हैं, (५) आयु जो किसी नियत समय तक एक गति में स्थिति रखते हैं, (६) नाम जो शरीरादिक बनाते हैं, (७) गोत्र जो कुलों की शुभाशुभ अवस्थाओं में कारण होते हैं और (८) वेदनीय जो सुख दुख रूप सामग्री के कारण होते हैं। ऐसे द्रव्य-कर्मों से भाव-कर्म होते हैं और भाव-कर्मों से द्रव्य-कर्म बँधते हैं। इस प्रकार अनादि सन्तान क्रम से पूर्व बद्ध कर्मों के फल से विकृत परिणामों को प्राप्त होकर जीव अपने हो अपराध से आप नवीन कर्मों का बन्धन प्रस्तुत करता है । इन्हीं नवीन कर्मों के उदय से पुनः इसके विकृत परिणाम होते हैं और उनसे पुनः पुनः नवीन नवीन कर्मों का बन्धन प्रस्तुत करता हुआ वह अनादि काल से इस संसार में पर्यटन करता है । जीव सन्तान-क्रम से बीज-वृक्षवत् अनादि काल से अशुद्ध है। ऐसा नहीं है कि वह पहले शुद्ध था और पीछे अशुद्ध हो गया, क्योंकि यदि वह पहले शुद्ध होता तो बिना कारण बीच में अशुद्ध कैसे हो जाता और यदि बिना कारण ही बीच में अशुद्ध हो गया है तो इससे पहले अशुद्ध क्यों नहीं हो गया ? बिना कारण के कार्य नहीं हो सकता, यह नियम है, अतएव जीव अनादि से अशुद्ध है। इस पर शायद यह कहा जाय कि जो हमेशा अशुद्ध है उसे हमेशा अशुद्ध रहना चाहिए और तब ये मोक्ष की बातें कैसी ? इस सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy