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________________ ३४५ भगवान् महावार. पा होने पर यह माना हुआ जीव ब्रह्म हो जाता है और इसका माना हुआ सुख दुख दूर होने पर सच्चिदानन्द स्वरूप होने को मोक्ष कहते हैं। पर जिस विचार में अनेक प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले जीवों की सत्ता नहीं मानी जाती वह विचार अनुभव तथा न्याय से कितना दूर है यह बात स्वयं स्पष्ट है । जैन-तत्वज्ञान में माने हुए छः द्रव्यों का संक्षिप्त विवेचन हम ऊपर कर आये हैं। हम यह बतला आये हैं कि जैन-धर्म में चेतन द्रव्य एक जीव ही माना गया है । जैन सिद्धान्त में जीव अनादि और अनन्त हैं, उसका स्वरूप सच्चिदानन्द है। इन जीवों के दो प्रकार बतलाए गये हैं जिनकी सत्ता जन्म-मरणमय होती है, जिनकी चेतना अनन्तज्ञान और अनन्त दर्शनमय नहीं होती और जिनका आनन्द अनन्त सुख नहीं होता वे "संसारीजीव" कहलाते हैं और वे जीव जो अमर, अनन्त ज्ञान और अनन्त दशेनमय होते हैं मुक्त कहलाते हैं। ___ संसारी जीव अशुद्ध अवस्था में होते हैं। वे प्रत्यक्ष रूप से शरीर के बन्धन में होते हैं । उनको विशेष कर इन्द्रिय ज्ञान ही होता है। अपने साथ शरीर का निमित्त, नैमित्तिक, सम्बन्ध होने के कारण वे अपने में और शरीर में भिन्नता का अनुभव नहीं करते। इस कारण वे इच्छाओं के वशीभूत होकर मन्द और तीव्र कषाययुक्त अनेक क्रियाएं करते रहते हैं। इस प्रकार अशुद्ध अर्थात् पुद्गल के बन्धन बंधा हुआ जीव पुद्गल के प्रभाव में आकर कार्य करता रहता है। उन पुद्गल परमाणुओं को जो जीव पर अपना प्रभाव डालते हैं जैनशाखों में "कर्म" कहते हैं। इनकर्मों के बन्धन में पड़कर जीव मृगतृष्णा की तरह संसार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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