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________________ भगवान महावीर ३४४ इन सब बातों पर विचार करने से मालूम होता है कि जीव स्वतंत्र पदार्थ है, वह अनादि, अकृत्रिम और अविनाशी है। जो लोग इस प्रकार जीव की सत्ता को मानते हैं वे इसके बन्धन को और मोक्ष को भी मानते हैं। पर इन लोगों के मुक्ति विषयक विचारों में भी बड़ा मत-भेद है। कई लोग तो मानते हैं कि जीव का अस्तित्व पहले नहीं होता। परमात्मा उसको पैदा करता है, पर क्रिया करने में स्वतंत्र होने के कारण जन्म के पश्चात् वह इच्छानुसार पुण्य और पाप करता है। जो पाप करता है वह नरक में पड़ता है और जो पुण्य करता है वह मरण के पश्चात् पुनः परमात्मा से सम्बन्ध कर लेता है । कोई कहते हैं कि मृत्यु के पश्चात् तुरन्त ही यह सुख मिल जाता है, कोई कहते हैं कि नहीं आकबत के दिन तक उसे ठहरना पड़ता है और फिर खुदा के इन्साफ़ करने पर वह जजा या सजा भोगता है । एक पक्ष का कथन है कि चेनन के दो भेद हैं एक परमात्मा और दूसरा जीवात्मा । परमात्मा सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, अनादि, शुद्ध, जगत् का कर्ता हर्ता, जीवात्मा से नितान्त भिन्न सच्चिदानन्द है और जीवात्मा अल्पज्ञ, इच्छा, द्वेष, और प्रयत्न सहित है। यह जीव अपने कर्मों के अनुसार ईश्वर के दिये हुए फल भोगता है और वेदोक्त कर्म करने से मुक्ति प्राप्त करता है। ये विचार ठीक नहीं कहे जा सकते क्योंकि ऐसे ईश्वर की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती। कुछ लोग ऐसे जीव को एक स्वतंत्र द्रव्य नहीं मानते । उनका कथन है कि एक ब्रह्म के सिवा और कुछ नहीं है (एको. ब्रह्म द्वितीयोनास्ति) ये सब माया और भ्रम हैं, भ्रम के दूर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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