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________________ भगवान महावीर ३२० में समाप्त नहीं हो जाती, सत् और असत् आदि दूसरे विरुद्धरूप में दिखलाई देनेवाली बातें भी इस तत्व-ज्ञान के अन्दर सम्मिलित हो जाती हैं। घड़ा आंखों से स्पष्ट दिखलाई देता है। इससे हर कोई सहज ही कह सकता है कि "वह सत् है।" मगर न्याय कहता है कि अमुक दृष्टि से वह "असत्" भी है । यह बात बड़ी गम्भीरता के साथ मनन करने योग्य है कि प्रत्येक पदार्थ किन बातों के कारण "सत्" कहलाता है। रूप, रस, गन्ध आकारादि अपने ही गुणों और अपने ही धर्मों से प्रत्येक पदार्थ "सत्" होता है। दूसरे के गुणों से कोई पदार्थ "सत्" नहीं कहला सकता। एक स्कूल का मास्टर अपने विद्यार्थी की दृष्टि से "मास्टर" कहला सकता है। एक पिता अपने पुत्र की दृष्टि से पिता कहला सकता है। पर वही मास्टर और वही पिता दूसरे की दृष्टि से मास्टर या पिता नहीं कहला सकता । जैसे स्वपुत्र की अपेक्षा से जो पिता होता है, वही पर पुत्र की अपेक्षा से पिता नहीं होता है उसी तरह अपने गुणों से, अपने धर्मों से, अपने स्वरूप से जो पदार्थ सत् है, वही दूसरे पदार्थ के धर्मों से, गुणों से और स्वरूप से "सत्" नहीं हो सकता है । जो वस्तु "सत्" नहीं है, उसे "असत्" कहने में कोई दोष उत्पन्न नहीं हो सकता। * इसी विषय को अनेकान्त जयपताका में श्री हरिभद्रसूरि इस प्रकार कहते हैं: यतस्ततः स्व-द्रव्यक्षेत्रकालभावरुपेण सद वर्तते, परद्रत्र्यक्षेत्रकालभ, वरुपेण चासत् । ततश्च सच्चा सच्च भवति । अन्यथा तदभाव-प्रसङ्गात् (घटादिरूपस्य वस्तुको मावप्रसङ्गात् ) इत्यादि । अनेकान्त जयपताका पृष्ठ ३० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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