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________________ २९९ भगवान् महावीर इस प्रकार की अहिंसा का पालन मनुष्य किस प्रकार कर सकता है। क्योंकि शास्त्रानुसार कोई भी स्थान ऐसा नहीं है जहां पर जीव न हों। जले जीवाः स्थले जीवाः जीवा पर्वत मस्तके । ज्वालमाला कुले जीवाः सर्व जीव मयं जगत् ॥ जल में, स्थल में, पर्वत के शिखर पर, अग्नि में आदि सारे जगत् में जीव भरे हुए हैं। मनुष्य के प्रत्येक व्यवहार में, खाने में, पीने में, चलने में, बैठने में, व्यापार में, विहार में आदि तमाम व्यवहारों में जोव-हिंसा होती है । किसी प्रकार आदमी हिंसा से बच ही नहीं सकता। हाँ, यदि वह अपनी तमाम जीवनक्रियाओं को बन्द कर दे तो अलबत्तह बच सकता है। पर ऐसा करना मनुष्य के लिये असम्भव है। यह बात बिल्कुल ठीक है, हमारे जैनाचार्यों ने भी मनुष्यप्रकृति की इस कमजोरी को सोचा था । खूब अध्ययन के पश्चात् उन्होंने इस अहिंसा को बिल्कुल मनुष्य-प्रकृति के अनुकूल रूप दे दिया है। उन्होंने इस अहिंसा को कई भेदों में विभक्त कर दिया है। उन भेदों को ध्यान-पूर्वक मनन करने से यह सब विषय स्पष्ट रूप से समझ में आ जायगा । अहिंसा के भेद जैनाचार्यों ने अहिंसा को कई भेदों में विभक्त कर दिया है। पहिले तो उन्होंने हिंसा के चार भेद बतलाये हैं। १-संकल्पी हिंसा, २-आरम्भी हिंसा, ३-व्यवहारी हिंसा और ४-विरोधी हिंसा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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