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________________ २१७ भगवान् महावीर पण. बारह वर्ष के पश्चात् विदेश से आया था। जिसका उत्सव मनाया जा रहा था। ऐसे समय में भगवान् उसके यहां गोचरी के निमित्त पधारे । उन्हें देखते ही वह आनन्द से पुलकित हो उठा। और अपना अहो भाग्य समझ उसने बड़े ही भक्ति भाव से भोजन करवाया ।• यहां से बिहार करके प्रभु 'श्वेताम्बी' की ओर चले । यहां को राजा बड़ा ही जिन भक्त था । भगवान् का आगमन सुन कर बड़े हर्ष के साथ अपने कुटुम्ब और प्रजा जनों के सहित उनके दर्शनार्थ आया। और बड़े ही भक्ति भाव से उसने प्रभु की वन्दना की। यहां से बिहार करते हुए प्रभु अनुक्रम से 'सुरभिपुर' नामक नगर के समीप आये। यहां पर गंगा नदी को पार करना पड़ता था। इसलिए प्रभु दूसरे मुसाफिरों के साथ में एक नाव पर आरुढ़ हो गये। - इसी स्थान पर उनके त्रिपुष्ट योनी का बैरी उस सिंह का जीव जिसे कि उन्होंने मारा था “सुदुष्ट" नामक देव योनि में रहता था। महावीर को देखते ही उसे अपने पूर्ण भव का स्मरण हो पाया। क्रोधित होकर बदला चुकाने के निमित्त उसने उन पर उपसर्ग करना शुरु किया। इस उपसर्ग का वर्णन भी हम पहले कर चुके हैं । उस उपसर्ग को कम्बल और सम्बल नामक दो देवों ने दूर किया। और भगवान् को सकुशल नदी पार पहुँचा दिया। ___ भगवान् अपने चरण कमलों से गंगा नदी की रेती को पवित्र करते हुए आगे जा रहे थे, इतने ही में "पुष्य" नामक एक ज्योतिषी ने पीछे से रेती में मुद्रित हुए, उनके चरण चिन्हों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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