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________________ भगवान् महावीर २१६ कहने लगा-“दयानिधि ! तुम्हारी शक्ति को न समझ कर मैंने तुम्हारे अत्यन्त अपराध किये हैं इसके लिए मुझे क्षमा कीजिये। __ महावीर ने कहा-"यक्ष ! तू वास्तविक तत्व को नहीं समझता है। इसलिए जो यथार्थ तत्व है उसे समझ-वीतराग में देव बुद्धि, साधुओं में गुरु बुद्धि और शास्त्रों में धर्म बुद्धि रख । अपनी ही आत्मा के समान सब की आत्मा को समझ। किसी की आत्मा को पीड़ा पहुँचाने का संकल्प मत रख । पूर्व किए हुए पापों का पश्चाताप कर । जिससे तेरा कल्याण हो।" __ महावीर के उपदेश से यक्ष ने सम्यक्त को धारण किया । और फिर नमस्कार करके चला गया। चतुर्मास वहां पर व्यतीत कर भ्रमण करते हुए प्रभु एक बार फिर 'मोराक' नामक ग्राम में भाकर वहां के उद्यान में ठहरे। वहां पर एक "अच्छन्दक" नामक पाखण्डी रहता था । वह बड़ा दुराचारी था । और मन्त्र तन्त्र का ढोंग कर लोगों को ठगा करता था। महावोर ने उसके पाखण्ड को दूर कर उसे प्रबोधा। यहां से चल कर बिहार करते करते प्रभु 'श्वेताम्बरी' के समीप आये। यहां से कुछ दूर पर "चण्डकौशिक" नामक दृष्टि विष सर्प का निवास स्थान था। वहां पर जाकर उन्होंने उसे समकित का उपदेश दिया। जिसका विस्तृत वर्णन मानो बैज्ञानिक के खण्ड में किया जा चुका है। "कौशिक" सर्प का इस प्रकार उद्धार कर भगवान् 'उत्तरवाचाल' नामक ग्राम के समीप आये । एक पक्ष के उपवास का अन्त होने पर पारणा करने के निमित्त वे ग्राम में "नागसेन" नामक गृहस्थ के घर गये। उसी दिन उसका एकलौता पुत्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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