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________________ १५५ भगवान् महावीर •ow बाण के समान दिव्य संगीत प्रारम्भ किया, और कोई प्रभु को गाढ़ पालङ्गिन दे, अपनी दीर्घ काल जनित विभोगाग्नि को शांत करने लगीं, कोई अपनी लवकोली कमर के टुकड़े करती हुई नाना प्रकार के हाव-भाव युक्त नृत्य करने लगीं। यदि कोई साधारण कुल का तपस्वी-जिसने यौवनकाल में इस प्रकार के सुखों का अनुभव नहीं किया है-होता तो निश्चय था कि वह इस इन्द्र पुरी के नन्दनकानन को और उसमें विचरण करनेवाली किल्लोलमयी रमणियों को देख कर तपस्या से स्खलित हो जाता। पर इस स्थान पर तो-जहाँ कि सङ्गम अपनी विविध चेष्टाओं को आजमा रहा था-महावीर थे, ये वे की महावीर थे जिन्होंने अपने यौवन-काल में इसी प्रकार के भोगों को खूबी के साथ भोगा था, और इनकी अपूर्णता को पूर्णतया समझकर एक दिन बहुत सन्तोष के साथ इनको लात मार दी थी, कैसे सम्भव था कि वही महावीर उन्हीं भोगों की पुनरावृति पर रीझ जाते। मतलब यह है कि सङ्गम की यहचेष्टा भी निरर्थक हुई, वे सब भागवती अफ्सराएँ अपना सा मुख लेकर चली गई। पर सङ्गम सहज ही हारनेवाला देव न था, उस उपाय में भी असफलता होते देख उसने एक नवीन कृत्य की योजना की। वह इस बात को जानता था कि महावीर अपने मातापिता के बड़े ही भक्त थे। उन्होंने अपनी उम्र में कभी मातापिता की आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया था । ऐसी स्थिति में यदि इस समय भी उनके माता-पीता के प्रति रूप में किसी को यहाँ उपस्थित किया जाय तो सम्भव है कि यह तपस्वी तपस्या से स्खलित हो जाय । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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