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________________ १४५ भगवान् महावीर वह सर्प बाहर निकला, वीरप्रभु को वहां खड़े देख कर वह क्रोध में आग बबूला हो गया । वह सोचने लगा कि मेरे राज्य के अन्तर्गत यह मानव-ध्रव की तरह स्थिर होकर कैसे खड़ा है। क्रोध में आकर उसने भयङ्कर रूप से एक फुफकार मारी जिसके प्रताप से उसके आस पास का सारा वायु-मण्डल नीला और ज्वालामय हो गया । आस पास के पक्षी और छोटे बड़े जीव चित्कार करके धराशायी हो गये। इतने पर भी उसने आश्चर्य से देखा कि वह मानव ज्यों का त्यों ध्यानस्थ खड़ा है, उस भयंकर फुकार ने उसकी देह पर रंच मात्र भी असर नहीं किया। इससे उसने और भी अधिक क्रोध में आकर जोर से भगवान् के अँगूठे पर काटा । पर फिर भी आत्मबल के प्रभाव से उस विष ने और आसपास की ज्वाला ने भी भगवान् के शरीर पर कुछ असर न किया। बुद्धिवाद के इस युग में सहसा लोग इस बात पर विश्वास न करेंगे-पर हमारी समझ में इस घटना में विशेष असम्भवता की छाया नहीं है । हम प्रत्यक्ष में देखते हैं कि साधारण से साधारण लोग अपने मंत्र-बल के प्रभाव से बड़े बड़े सों को पकड़ लेते हैं, काटे हुए सर्पका विष उतार देते हैं, और सर्प के काटने का उनपर कुछ भी असर नहीं होता। जब साधारण मंत्र-बल की यह बात है तो एक ऐसे महानयोगी के शरीर में जिसका आत्मबल उच्चता की पराकाष्टा पर पहुंच चुका है-यदि सर्प का विष असर न करे तो उसमें कोई विशेष प्राश्रयं की बात नहीं । इस घटना से सर्प बड़ा ही आश्चर्य चकित हुआ। वह बड़ी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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