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________________ भगवान् महावीर .१४४ सातवें नरक में जा सकती है, वही उसी शक्ति को दूसरी ओर मोड़ कर मोक्ष में भी जा सकती है । जिसके अन्दर सातवां नरक उपार्जन करने के लिये परियाप्त पाप करने की शक्ति नहीं है, वह मोक्ष प्राप्त करने की शक्ति भी नहीं रख सकता । जिसके अन्तर्गत पाप करने की पर्याप्त शक्ति है वही पापों को काट कर मुक्ति भी प्राप्त कर सकता है। भगवान महावीर इस सिद्धान्त को भली प्रकार जानते थे, यदि वे न जानते होते तो उन्हें उस भयङ्कर मार्ग से जाने की कोई आवश्यकता नहीं रहती। पर उनको प्रकृति हमेशा परोपकार ही की ओर लगी रहती थी। उनका ध्येय ही इस प्रकार के अ. भव्य और कुमार्ग-गामी जीवों को सुमार्ग पर लगाने का था। उनका अवतार ही मनुष्य जाति का उद्धार करने के निमित्त हुआ था। और इसी प्रकृति के कारण सर्प का उद्धार करने की इच्छा का होना स्वाभाविक ही था। वे जानते थे कि किसी शक्ति की विकृतावस्था उसकी अयोग्यता का लक्षण नहीं है। जिस जल के प्रबल पूर में आकर सैकड़ों हजारों ग्राम बह जाते हैं, उसी जल से सृष्टि का पालन भी होता है। जिस दृष्टि विष सर्प की क्रोध ज्वाला के कारण गगन विहारी पक्षी भी भस्म हो जाते हैं, उसी सर्प के हृदय में कोशिश करने पर शान्ति और क्षमा की मधुर धारायें भी बहाई जा सकती हैं। भगवान महावीर ने यह सोचकर उस गुवालबाल के के कथन की परवाह न की। वे शान्ति पूर्वक उसी स्थान की ओर बढ़े और उस सर्प के निवास स्थान के पास आकर कायोत्सर्ग: ध्यान लगा शान्ति पूर्वक खड़े हो गये। कुछ समय के पश्चात् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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