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________________ .१४१ भगवान् महावीर अपनी शक्ति से, अपने आत्मबल से उपसर्गो का, बाधाओं का सामना कर शान्ति पूर्वक उन्हें सहन करते हैं। वे दूसरे की मदद से कभी केवलज्ञान प्राप्त नहीं करते ।" महान आत्माएं आत्मसिद्धि में आने वाले उपसर्गों का कभी अपनी लब्धियों से या शक्तियों से सामना नहीं करतीं। वे इन विनों के नाश में किसी प्रकार की दैवी अथवा मानवीय सहायता नहीं लेती। क्योंकि वे भली-प्रकार तत्वज्ञान के इस रहस्य को जानती हैं कि निकांचित् कर्मों का फल कितना हो ऊंचा लब्धि कारक क्यों न हो उसे भोगना ही पड़ता है। साधारण तयः कर्म दो प्रकार के होते हैं। एक तो वे जो तपस्या के बल से अथवा संयम की शक्ति से जल जाते हैं। इसके अतिरिक्त दूसरे प्रकार के कर्म वे जिन्हें निकांचित् कहते हैं वे ऐसे होते हैं जिनका फल आत्मा को भोगना ही पड़ता है । वे तपस्या वगैरह से निवृत नहीं हो सकते। भगवान महावीर फिलासफी के इस रहस्य को जानते थे। वे जानते थे कि फलप्रदायी सत्ता का निरोध तेरहवें गुण स्थान में विहार करने वाले मुनियों से भीहोना असम्भव है, यह इन्द्र तो क्या चीज़ है। और यही कारण है कि महावीर ने इन्द्र की प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया। भक्ति-भाव से प्रेरित हुए,इन्द्रको प्रभु के शरीर से ममता थी और इसी कारण उसने यह प्रार्थना की। पर प्रभु महावीर के भाव से तो यह शरीर नितान्त तुच्छ था, ऐसी हालत में वे इन्द्र की प्रार्थना को क्यों स्वीकार करने लगे, उनकी आत्मा, आत्मावाले उपसगों से तनिक भी भयभीत न थी। उनका अगाध आत्मबल किसी की मदद की अपेक्षा पर निर्भर न था, कर्मों को जीतने के लिए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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