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मौर्य शासन पद्धति
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की खानों का निरीक्षण करने के लिये अलग अलग अध्यक्ष नियुक्त थे । समुद्री खानों के अध्यक्ष को "खन्यध्यक्ष" कहते थे । उसका कर्तव्य हीरे, मोती, शंख, मूंगे, क्षार, नमक आदि का संग्रह करना और उनकी बिक्री आदि के सम्बन्ध में नियम बनाना था। जमीन के अन्दरवाली खानों के अध्यक्ष को "आकराध्यक्ष" कहते थे। जो मनुष्य सोने, चाँदी, लोहे, ताँबे आदि धातुओं के बारे में अच्छा ज्ञान रखता था और हीरे, पने आदि बहुमूल्य वस्तुओं को परख सकता था, वही "आकराध्यक्ष' के पद पर नियुक्त होता था। वह नई नई खानों की तलाश में रहता था । राख, कोयले आदि चिह्नों से वह यह मालूम करता था कि कोई खान खोदी गई है या नहीं और उसमें अधिक माल है या कम । कराध्यक्ष के नीचे और बहुत से कर्मचारी काम करते थे, जो धातु, मणि और खान सम्बन्धी हर एक बात में पूर्ण पंडित होते थे। खान खोदनेवाले मजदूर "याकरिक" कहलाते थे। जब "आकराध्यक्ष" को किसी नई खान का पता लगता था, तब वह राज्य को उसकी सूचना देता था। उस समय राज्य इस बात का विचार करता का कि हम स्वयं खान खुदवावें या किसी को पट्टे पर दे दें । जिन खानों की खुदाई कराने में अधिक व्यय होने की संभावना होती थी, वही खाने पट्टे पर दी जाती थीं। खानों से जो धातुएँ निकलती थीं, उनकी सफाई भी आकराध्यक्ष की देख भाल में होती थी। साफ हो जाने के बाद धातुएँ भिन्न भिन्न विभागों के अध्यक्षों के पास भेज दी जाती थीं। उदाहरण के तौर पर सोना "सुवर्णाध्यक्ष" के पास, लोहा "लोहाध्यक्ष" के पास, चाँदी और ताँबा "लक्षणाध्यक्ष" (टकसाल के अफसर) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com