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राजनीतिक इतिहास व्यवहृत होता था । चन्द्रगुप्त की सैनिक व्यवस्था में भी यूनान के प्रभाव का कोई चिह्न नहीं मिलता। चन्द्रगुप्त ने अपनी सेना का संघटन भारतवर्ष के प्राचीन आदर्श के अनुसार किया था। भारतवर्ष के राजा महाराज हाथियों की सेना को और उससे उतर कर रथ और पैदल सेना को अधिक महत्त्व देते थे। घुड़सवार सेना बहुत थोड़ी रहती थी; और वह ऐसी अच्छी भी न होती थी। पर सिकन्दर हाथियों या रथों से बिलकुल काम न लेता था और अधिकतर अपनी घुड़सवार सेना के ही भरोसे रहता था। इससे सिद्ध होता है कि अपनी सेना का संघटन करने में भी चन्द्रगुप्त ने सिकन्दर का अनुकरण नहीं किया ।
चन्द्रगुप्त का अन्त-जैन धर्म की कथाओं से पता लगता है कि चन्द्रगुप्त जैन धर्म का अनुयायी था; और जब बारह वर्ष तक बड़ा भारी अकाल पड़ा, तब वह राजगद्दी छोड़कर दक्खिन में चला गया और मैसूर के पास श्रवण वेलगोला नामक स्थान में जैन यति की तरह रहने लगा। अन्त में वहाँ उसने उपवास करके प्राणत्याग किया। अब तक वहाँ उसका नाम लिया जाता है। यह कथा कहाँ तक सच है, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। संभव है कि उसने राजगद्दी से उतरकर अंत में जैन धर्म ग्रहण किया हो और फिर यती की तरह जीवन व्यतीव करने लगा हो। जब ई० पू० २९८ के लगभग चन्द्रगुप्त राजगद्दी से उतरा ( या दूसरे मत के अनुसार उसका परलोकवास हुआ), तब उसका पुत्र विंदुसार गद्दी पर बैठा।
विन्दुसार (अमित्रघात)-यूनानी लेखकों ने चन्द्रगुप्त के उत्तराधिकारी, बिंदुसार, के नाम कुछ ऐसे शब्दों में लिखे हैं, जो
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