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बाल दीक्षा विवेचन
मुक्तिका मार्ग और संन्यास संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयस करावुभौ ॥ गोता अ० ५ श्लो० २॥ संसारमें कल्याणके दो मार्ग हैं-संन्यास और कर्मयोग । इन्हीं दो मार्गों को सांख्य और योग अथवा ज्ञानमार्ग और कर्ममा भी कहा जाता है। संन्यासका अर्थ है कर्मसंन्यास । जो लोग संसारके समस्त व्यवहारोंको निःसार समझ कर उनका त्याग कर देते हैं, वे संन्यासी कहे जाते हैं। कर्मयोगका अर्थ है अनाशक्तियोग। सांसारिक विषयोंमें अनाशक्त रहते हुए लौकिक कार्य करते रहना अनाशक्ति योग है। सांसारिक व्यवहारोंको कर्तव्यबुद्धिसे करते हुए जो व्यक्ति अपने जीवनको देश, जाति, लोक अथवा धर्मकी सेवामें लगा देते हैं, वे इसी कोटि में गिने जाते हैं। इन्हींको लक्ष्य करके कविवर मैथिलीशरण गुप्तने कहा है
बास उसी में है विभुवर का है बस सच्चा साधु वही, जिसने दुखियोंको अपनाया, बढ़कर उनको बाह गही। आत्मस्थिति जानी उसने हो परहित जिसने व्यथा सही, परहितार्थ जिनका वैभव है, है उनसे ही धन्य मही ।।
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