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(ग) उपरति-ब्रह्मज्ञानके सिवाय सभी कार्योंको छोड़ देना। (घ) तितिक्षा-शीत और उष्ण आदि कष्टोंको मनमें किसी
प्रकारका विकार बिना लाये सहन करना। (ङ) समाधि-निद्रा, आलस्य और प्रमादका त्याग करके ___ मनको ब्रह्म-चिन्तनमें लगाए रखना ।
(च) श्रद्धा-वस्तु तत्त्व पर दृढ़ विश्वास । (४) मुमुक्षुत्व-संसारमें छुटकारा पानेकी उत्कट इच्छा ।
जिस व्यक्तिमें उपरोक्त गुण हों वही संन्यासका अधिकारी हो सकता है । अवस्था परिपक्व हुए बिना ऐसे गुण शंकराचार्य सरीखे किसी विरले महात्मामें ही प्राप्त हो सकते हैं। इस वाक्यका सहारा लेकर जनसाधारणको अपरिपक्क अवस्थामें संन्यासका अधिकार दे देना, उचित नहीं कहा जा सकता। इसीलिये कठोपनिषद्में कहा है
नाविरतो दुश्चरिताना शान्तो नासमाहितः । नाशान्त मानसो वाऽपि प्रज्ञानेनैव माप्नुयात् ॥
कठोपनिषद् २ वल्ली, मंत्र ३३ अर्थात् जो व्यक्ति बुरे आचरणसे अलग नहीं हुमा, जो शान्त तथा समाहित नहीं है अथवा जिसका मन शान्त नहीं है, वह ज्ञानके द्वारा ब्रह्मको प्राप्त नहीं कर सकता । ।
मुण्डकोपनिषदो माया हैपरीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् बायो निवेदमायानास्त्यकृतः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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