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वैदेह जनक याज्ञवल्क्य ऋषिके पास जाकर बोले-भगवन् ! संन्यासके विषयमें बताइए। याज्ञवल्क्य ऋषिने कहा- ब्रह्मचर्य समाप्त करके गृहस्थ बनना चाहिये । गृहस्थ होकर वानप्रस्थ स्वीकार करना चाहिये और वानप्रस्थ होकर प्रव्रज्या अंगीकार करनी चाहिये। अथवा दूसरी प्रकारसे ब्रह्मचर्यके बाद हो प्रव्रज्या अंगीकार कर ले, गृहस्थाश्रमके बाद करे अथवा वानप्रस्थ होकर करे। अथवा जिस दिन वैराग्य उत्पन्न हो, उसी दिन प्रव्रज्या अंगीकार कर ले, फिर चाहे वह व्रती हो, अव्रती हो, स्नातक हो, अस्नातक हो, अग्निहोत्र करनेवाला हो या दूसरा हो।
इन वाक्योंको लेकर शङ्कराचार्य तथा दूसरे आचार्योने गृहस्थाश्रमसे पहले भी संन्यासका विधान किया है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति जब चाहे संन्यास ले लेवे । शङ्कराचार्यने स्वयं लिखा है कि साधन चतुष्टय संपन्न व्यक्ति ही ब्रह्मजिज्ञासाका अधिकारी होता है। वे इस प्रकार हैं- .
(१) नित्यानित्यवस्तुविवेक-संसारमें कौनसी वस्तु नित्य या स्थायी है और कौनसी अनित्य या अस्थायी है, इसका भेदज्ञान अच्छी तरह होना चाहिये।
(२) इहामुन्नार्थभोगविराग-इस लोक और परलोकके सभी भोगोंसे विरक्ति। (३) शमदमादि साधन सम्पत्-शम, दम आदिसे युक्त होना।
(क) शम-मनको दुनियावी धन्धोंसे हटाना।
(ख) दम–बाह्य इन्द्रियोंको वशमें रखना। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com