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'ऋषभमा सभासानां, सपत्नानां विपासहितम् , हतारं शत्रूणां कृधि-विराजं गोषितंगवाम् ॥'
यजुर्वेद- ६ मंत्र २५ में कहा है :
'स्वास्ति न इन्द्रो वृद्ध श्रवाः स्वस्तिनः पूषा विश्ववेदाः स्वस्ति न स्तोत्यो अरिष्टनेमी स्वस्ति नो बृहस्पतिद्धातुः।' इस मंत्र में इन्द्र, पूषा जिन तार्थकर अरिष्ट नेमि और पृहस्पति से मंगल कामना की गई है इत्यादि ।
५.-महाभारत:
युगे युगे महापुण्यं दृश्य ते द्वारिकापुरो भवार्ण हरियंत्र प्रभास शशि भूषणः । वताद्रौ जिनो नेमियुगादिविमलाचले
ऋषीणानाश्रमा देव मुक्ति मार्गस्य कारणम् ।। अर्थ-युग युग में द्वारकापुरी महाक्षेत्र है जिसमें हरि का
अवतार हुआ, जो प्रभास क्षेत्र में चन्द्रमा की तरह शोभित है, गिरनार पर्वत पर [ रेवतान्द्रौ] नेमनाथ और सिद्धाचल अर्थात् विमलाचल पर्वत पर आदि. नाथ याने ऋषभ देवजी सिद्ध हुए हैं । ये क्षेत्र ऋषियों के आश्रम होने से मुक्ति मार्ग के कारण हैं।
नोट-इससे मालूम होता है कि महाभारत के पूर्व भी
जैन धर्म की मान्यता थी और उनके रेवतादि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com