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परका संवत्का अङ्क चूनेके नीचे आगया है. इन सब हाथियॉपर पहिले मूर्तियां बनी हुई थीं परन्तु इसवक्त उनमेंसे केवल तीन परही हैं जो चतुर्भुज हैं. हस्तिशालाके बाहर परमारोंसे आबूका राज्य छीननेवाले चौहान महाराव लुंडा लुंभा के दो लेख हैं जिनमेंसे एक वि० सं० १३७२ ( ई० स० १३१६) चैत्रवदि ८ और दूसरा वि० सं० १३७३ ( ई० स० १३१७) चैत्रवदि..... का है. इस अनुपम मन्दिरका कुछ हिस्सा मुसल्मानोंने तोड डाला था जिससे वि० सं० १३७८ (ई० स० १३२१ ) में लल्ल और बीजड नामक दो साहूकारोंने चौहान महाराव तेजसिंहके राज्य समय इसका जीर्णोद्धार करवाया और ऋषभदेवकी मूर्ति स्थापित की ऐसालेख आदिसे पाया जाता है। यहांपर एक लेख बघेल ( सोलंकी) राजा सारंग देवके समयका वि० सं० १३५० (ई० स०१२९४) माघ सुदि १ का एक दीवारमें लगा हुआ है. इस मन्दिरकी कारीगरीकी जितनी प्रशंसा की जावे थोडी है. स्तंभ, तोरण, गुंबज छत, दरवाजे आदि पर जहां देखा जावे वहीं कारीगरीकी सीमा पाई जाती है. राजपूतानाके प्रसिद्ध इतिहास लेखक कर्नल टॉड साहब जो आबुपर चढ़नेवाले पहिलेही यूरोपिअन थे इस मन्दिरके विषयमें लि
१ निनप्रभसूरिने भपनी 'तीर्थकल्प' नामक पुस्तकमें लिखा है कि, म्लेच्छों (मुसलमानों ) ने इन दोनों (विमलशाह और तेजपालके ) मंदिरोंको तोड डाला जिसपर शक संवत् १२४३ (वि. सं. १३७८ ईसवी सन् ( १३२१) में पहिलेका उद्धार महणसिंहके पुत्र लल्लने करवाया और चण्डसिंहके पुत्र पीथड़ने दूसरे ( तेजपालके ) मंदिरका उद्धार करवाया. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com